Book Title: Rayanwal Kaha
Author(s): Chandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
Publisher: Bhagwatprasad Ranchoddas

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Page 343
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छठा उच्छ्वास जिनदत्त ने राउल को भिक्षा लेने के लिए बहुत निमंत्रण किया परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया। वहां से उठकर जाते हुए उसने कहा--'सायं या प्रातःकाल मैं यहां पुनः आऊँगा। वहां से चन्दन को ठगने वाले धनदत्त को ढूढ़ने के लिए नगर में गया। वह एक चौराहे पर बैठा और इतने मधुर स्वरों से वीणा बजाई कि नगरवासी लोग स्वयं आकृष्ट हुए और मग-समूह की भांति नाद से मोहित होकर बहुत सारे लोग राउल के चारों ओर एकत्रित हो गए । उन्होंने उसे अनेक चीजें स्वीकार करने के लिए कहा, किन्तु राउल ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया । अपनी निस्पृहता के कारण उसने जनता के मन में बहुत बड़ा स्थान पा लिया । वह अपने हाथ से सात्विक भोजन बनाता और उसी में संतुष्ट रहता । जहां कहीं एकान्त में रात बिताता और चतुराई से धूर्त धनदत्त के घर से परिचित हो गया। ___इधर भवितव्यतावश राजा के शरीर में दाघज्वर का रोग उत्पन्न हो गया । किए गए सारे उपाय निष्फल हुए । वेदना से पीडित राजा बहुत पीड़ा का अनुभव कर रहा था। तब एक श्रद्धालु व्यक्ति ने राजा से निवेदन किया--'आप ऐसी वेदना का अनुभव क्यों कर रहे हैं ? यहां एक योगी आया है । उसका नाम राउल है । वह यंत्र, मंत्र, तंत्र और औषधियों में निपुण है । उसके आशीर्वाद से आपका रोग मिट जाएगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। इसलिए उसे यहां निमंत्रित करना चाहिए। वह कृपालु है, अवश्य कृपा करेगा । उसी समय दुःखी राजा ने मंत्री के साथ ससम्मान यह प्रार्थना भेजी कि योगिराज दर्शन देने के लिए राजमन्दिर में आयें। राउल ने कहा'क्या हानि है ? राजा को मैं अवश्य दर्शन दूंगा। प्रभु की कृपा से सब ठीक होगा।' इतना कहकर तत्काल वह वहां से उठा और लोगों से घिर। हुआ वह अपने लय में लीन, होठों से उपांशु जाप करता हुआ राजमहल में आ पहुंचा । राजा ने योगी को सविनय प्रणाम किया और आसन दिया। राजा ने कहा'योगीश्वर ! आपके दर्शन से आज मैं कृतार्थ हुआ है। दाघज्वर की तीव्र अनुभूति हो रही है । चिकित्सा करते-करते सभी चिकित्सक हार गए । अब मैं आपकी शरण में हूँ। अनुगृह करें ।' योगिराज राउल ने प्रसन्नता से कहा-'राजन्! सब कुछ कल्याण करने में ईश्वर समर्थ है जिसके स्मरण मात्र से आन्तरिक रोग भी नष्ट हो जाते हैं, वहां बाहरी रोगों की बात ही क्या है ? मनुष्य अपने ही अज्ञान से रोगी होता है । प्राकृतिक नियनों का खण्डन करना ही रोगों को आमंत्रण देना है। वास्तव में इन्द्रियों की आसक्ति ही अनेक रोगों की जननी है। यदि वह आसक्ति For Private And Personal Use Only

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