Book Title: Rayanwal Kaha
Author(s): Chandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
Publisher: Bhagwatprasad Ranchoddas

View full book text
Previous | Next

Page 336
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रेयणवाल कहां इसलिए माता-पिता की खोज में मुझे जाना चाहिए। आप जैसों के लिए वहां कोई अवकाश नहीं है । मैं अभी जाता हूँ, मुझे साथ क्या लेना है !''---ऐसा कहता हुआ राउल हाथ में केवल वीणा लेकर उठा। 'यह ठीक नहीं है, यह ठीक नहीं है'-ऐसे कहते हुए रत्नपाल ने झट से राउल का हाथ पकड़ा और बोला-'योगेन्द्र ! असमय में ही गमन कैसे कर रहे हो ? थोड़ा सोचो सर्व प्रथम माता पिता के लिए पुत्र का परदेश , जाना ही नीति-संगत है। दूसरे में-- तुम अतिथिरूप में दूर देश से यहां आए हुए हो। तुम सेवा कराने योग्य हो । ऐसी स्थिति में अपने काम के लिए तुमको भेजना उचित नहीं है । तीसरे में विरक्त व्यक्तियों से गृहकार्य कराना शोभास्पद नहीं होता। इसलिए मेरी सविनय प्रार्थना है कि तुम यहीं रहकर योग साधना करो। इस विषय में तुमको मेरा भागी नहीं बनना है। 'मेरा जाना उचित है'--यह बताते हुए राउल ने गर्जते हुए कहा- 'श्रेष्ठिपुत्र ! राउल से कोई नीति अज्ञात नहीं है । 'वसुधैव कुटुम्बकम्' ऐसी भावना करने वाले मुनियों के लिए निज और पर का विचार ही कहां है ? तुम्हारे माता-पिता क्या मेरे मातापिता नहीं है ? अतिथि का अर्थ है-जिसके आगमन की कोई तिथि न हो। यह निरुक्त स्पष्ट है । इसलिए वह अभ्यागत-मेहमान नहीं है । सेवा करना ही जिसका जीवन व्रत है, वह भला दूसरे की सेवा की अभिलाषा कैसे करेगा? जो शीलसंपन्न तपस्वी मुनि परोपकार करते हैं, वे गृहस्थ के संसर्गजन्य दोष से दूषित नहीं होते । अरे, तुम निरर्थक ही आग्रह कर रहे हो ? मित्र ! सुनो, 'यदि छह महीनों के भीतर भानुमती और जिनदत्त को लाने में समर्थ न होऊँ तो मैं अग्निकुण्ड में प्रविष्ट हो जाऊँगा 'ऐसी प्रतिज्ञा कर निडर राउल तत्काल एकाकी चलने के लिए तत्पर हो गया। रत्नपाल को उसके निरोध का मार्ग नहीं मिला । वह अत्यन्त खिन्न होता हुआ, ज्यों त्यों भेजने के लिए सम्मत हो गया। रत्नपाल राउल के साथ गांव की सीमा तक गया और शिक्षा देते हुए कहा-'राउल ! देशान्तर में पूर्ण सावधानी रखना । दूसरों को ठगने में तत्पर अनेक धूर्तशिरोमणि वहां पग-पग पर दूसरे अपरिचित मनुष्यों को ठगते हैं । जब तक तुम लौटकर नहीं आजाआगे तब तक मेरा मन कहीं भी नहीं लगेगा। मैं प्रतिदिन तुम्हारी बाट देखू गा इसलिए शीघ्र ही पुन: लौट आने की चेष्टा करना ।' राउल ने कहा'ठीक है !' वह अपने प्रिय के विरह से अन्तीड़ा का अनुभव करता हुआ भी, ऊपर से योगी की तरह निर्ममत्व दिखाता हुआ, आगे बढ़ गया। दोनों बहुत दूर मार्ग तक आगए रत्नपाल का गला विरह की वेदना से रुद्ध हो गया। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362