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रयणवाल कहा
क्या करना चाहिए' ? 'क्या उत्तर देना चाहिए ?' इन विकल्पों की लहरों से आहत होने लगा। उसने सोचा-- एक और मेरा यह निश्चय है कि जब तक मझे अपने माता-पिता न मिल जाए तब तक मुझे विवाह नहीं करना है। दूसरी ओर परम प्रशंसनीय राजा का अनिषेधनीय अनुरोध है। मेरे सामने सर्प और छुछुन्दरी की सी स्थिति उपस्थित हो गई है ।
कुमार को मौन देखकर राजा ने साग्रह पूछा कुमार ! तुम मौन क्यों हो?
रत्नपाल ने हाथ जोड़कर स्फुट और कोमल स्वरों में विनय सहित राजा से निवेदन किया--- "मेरा परम सौभाग्य है आपने मुझे अपनी पुत्री देने के लिए कहा। किन्तु कहाँ तो धन के लोलुप हम व्यापारियों का कुल और कहाँ वीर रस से विशिष्ट जगत् विख्यात राजवंश ! कहाँ तो हमारी स्वार्थपरायण डरपोक मनोदशा और कहाँ क्षत्रियों की स्थिर संकल्प-वाली परार्थप्रवणा साहसिकी मनःस्थिति । महाऱ्या मणि स्वर्ण में शोभित होता है, केवल चमक, दमक दिखाने वाले कांच के टुकड़े में नहीं। योग्य के साथ योग्य की योजना करने पर ही योजक की मेधा का माहात्म्य प्रगट हो सकता है । इसलिए अपने कुल के अनुरूप महानरूप और शक्तिशाली दूसरे राजकुमारों को खोजें ।'
राजा ने सगर्व व्यंग कसते हुए कहा--"यहां धूर्त शिरोमणियों के सरदार के समक्ष तुम्हारी वंचकवृत्ति नहीं चलेगी। जो मानना है उसे अभी, सांय, कल, परसों या तरसों मानना ही पड़ेगा। यह अच्छी तरह से जान लो कि इसके सिवाय यहां से निकलने का कोई मार्ग नहीं है। इसी में कुशल है, ज्यादा बोलने से क्या लाभ ?"
राजा की परिणाम-विषम अन्तिम सूचना सुनकर कुमार का हृदय कांपने लगा और उसे यह नीति वाक्य याद हो आया कि आज्ञा प्रधान राजाओं को प्रीति सुस्थिर नहीं होती। तत्क्षण रत्नपाल ने अपनी भाषा का स्वर बदल डाला । स्वीकृति देते हुए 'उसने कहा'-नरनाथ ! मैंने आपके कथन को कब नकारा था? मेरा यह परम सौभाग्य है कि साक्षात् कल्पलता की भांति यह राजकुमारी मेरे वंश-वृक्ष पर चढ़ रही है । ऐसा मन्दभाग्य कौन होगा जो आती हुई लक्ष्मी का निषेध करे? अपनी योग्यता को प्रगट करना विवेकी व्यक्तियों का धर्म है, जिससे कोई वाद में पश्चात्ताप न हो।'
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