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रणवाल कहाँ
बालक को लेने के लिए मन्मन के पुरुष आए । हाय ! जिनदत्त का अति उदार हृदय भी आज पुत्र को समर्पित करने में अतीव कृपणताका अनुभव कर रहा था । 'आज मेरे द्वारा कुछ अघटित घटना घटित हो रही है, इस प्रकार सेठ के आकुल व्याकुल चित्त की वेदना देखी नहीं जा सकती थी । 'नव प्रसविनी भानुमती विद्युतू-निपात से भी अधिक दुःसह 'पुत्र प्रत्यर्पण' के शब्द को कैसे सहन करेगी' - यह सोचकर सेठ - किंकर्त्तव्यविमूढ हो गया । 'उसका मृणाल - सा कोमल हृदय किसी अप्रत्याशित स्थिति का अनुभव न करे' - ऐसा चिन्तन कर उसने सात्विक और कोमल वचनों से संबोधित करते हुए भार्या से कहा - 'शक्तिमति ! समय का बीतना अकल्पित है । पल्य और सागर -- इनका भी अन्त होता है, तो फिर संख्या से संकेतित काल का तो कहना ही क्या ? आज वह अनिष्ट अठाईसवां दिन आ गया है, जिसमें की हमारा यह नन्दन दूसरे का हो जाएगा । धर्मिष्ठे ! धर्म प्राप्ति की यह प्रत्यक्ष पहचान है कि प्रतिकूल समय में भी धैर्य को नहीं खोना चाहिए ।
भयभीत हृदयवाली भानुमती ने आश्चर्य और सखेद उत्तर देते हुए कहा - 'आर्यपुत्र ! आज ही वह अठाईसवां दिन कहां से आ गया ? आप बुद्धिमान हैं, आपको संख्या का विभ्रम कैसे हो गया ?"
'भद्र ! तेरा मातृहृदय शीघ्र ही बीत जानेवाले समय को नहीं जान पाता । क्या तुझे याद नहीं है कि चन्द्रदर्शन के लिए योग्य शुक्ल पक्ष की द्वितीया को पुत्र जन्म हुआ था । और आज कृष्ण पक्ष की रिक्ता तिथि चतुर्दशी है । देख, ये मन्मन के व्यक्ति पुत्र को हथियाने के लिए उपस्थित हो गए हैं ।
'ओह ! ये मृतहृदय व्यक्ति पुत्र को हथियाने के लिए आ गए हैं ? मैं दुधमुंहे बच्चे को दूसरों को कैसे सौप दूँ ? धिक्कार है, धिक्कार है, आपने ऐसे अविचारित वाणी का अनुबंध क्यों किया ?" - इस प्रकार विलाप करती हुई भानुमती तत्काल मूर्च्छित हो गई। जिनदत्त का मुख- कमल विवर्ण हो गया । उसने अनेक प्रकार के उचित उपचार किए और भानुमती को सचेत किया । भानुमती ने रोते-रोते कहा- 'मैं मूच्छित अवस्था में ही क्यों नहीं मर गई ? क्या पुत्र-विहीन जीवन से मरण अच्छा नहीं है ? धिक्कार है, कृतान्तयमराज भी अकृतान्त हो रहा है । मेरा अन्त नहीं कर रहा है ।"
जिनदत्त ने कहा - ' भामिनि ! स्वस्थ हो ! सब कुछ अच्छा ही होगा | हमें अब प्रतिज्ञा का पालन करना चाहिए। बच्चे को ला, जिससे कि उसे समर्पित कर हम अपनी प्रतिज्ञा को सत्य करें - पूर्ण करें । कांपते हुए हाथों
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