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रयणवाल कहां
रहा है । ज्यों त्यों उन्होंने गुप्त रूप से नगर की गलियों को पार किया। जब नगर का द्वार पीछे रह गया तब अनिर्वचनीय लज्जा का पार पा लिया ऐसा उन्हें महसूस होने लगा। तीन चार कोस चल चुके थे, फिर सूर्य उदित हुआ। “कोमलांगी? क्या तू लम्बी दूर तक चलने के कारण थक गई है ? क्या विश्राम के निमित्त कहीं बैठे"--इस प्रकार जिनदत्त रत्नपाल की माता भानुमती को बार-बार पूछ रहा था ।
यह सुनकर विनम्र वचनों से भानुमती बोली-"आर्यपुत्र ! आपका मुखकमल खिन्न दीख रहा है, अतः आप मार्ग में चलने का महान खेद अनुभव कर रहे हैं। ऐसा मैं अनुभव करती हूँ।"
प्रिये ! चलने से मुझे तनिक भी खेद नहीं हैं, किन्तु..................।" आगे बोलने से सेठ रुक गया।
'पत्नी ने आंसू पोंछते हुए पूछा- 'खेद का कारण क्या है ? आपने 'किन्तु' कहकर आगे बोलना बंद क्यों कर डाला ? क्या जीवन के आधार प्रिय पुत्र की स्मृति हो आई ? डबडबाई आंखों से एक दीर्घनिःश्वास छोड़ते जिनदत्त ने कहा---'रत्नमात ! तू पूछने में स्खलित हो गई ! मैंने प्रिय पुत्र की कब विस्मृति की थी कि आज स्मृति करू” इस प्रकार दोनों, पुत्र विरह से उत्पन्न दुःख की बातें करते हुए, बात-बात में पुत्र को याद करते हुए मार्ग काट रहे थे।
मार्ग में एक तालाब आया। सुन्दर एकान्त स्थान पाकर दोनों वहाँ विश्राम करने के लिए बैठ गए। उन्होंने सारा प्राभातिक कार्य संपन्न किया। 'नवकारसी' को पारित कर कुछ कलेवा किया । वे दोनों मध्यरात्रि में चले थे, अत: वे श्रांत और परितप्त हो गए थे। यहां विश्राम कर वे कुछ आश्वस्त हुए । 'कोई पीछे से हमको पूछते हुए आकर हमारे गमन में बाधा न डाल दे'- ऐसा सोचकर सेठ पुनः आगे बढ़ा। भानुमती पति के पीछे-पीछे चल रही थी। उसे पैदल चलने का अभ्यास नहीं था। अत: ऊंची-नीची भमि में बह लडखड़ाती थी। कभी तीखे पत्थर के टुकड़े से ठोकर खाकर वह आगे चलते हुए अपने पति को सखेद बुलाती थी। सेठ धैर्य के साथ उसके पैर से बहरही रुधिर धारा को रोकने के लिए योग्य उपाय करते थे। मध्याह्न के सूर्य के ताप से संतप्त वे दोनों एक सन्निवेश [ग्राम विशेष] के बीच गए । खड़ी से पुते हुए सफेद मकान के बाहर सुघड़ और छायादार वेदिका को देखा । मध्यान्ह वेला को बिताने के लिए वे उस पर बैठ गए और मस्तक
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