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रयणवाल कहा
उठाने में प्रवीण हैं, जो अनेक विधि कुटिल कला में निपुण हैं, जो हृदयविहीन हैं, जो मनुष्य धर्म से रहित हैं, वे धन कुबेर व्यक्ति विशाल आवासों में वस्त्र और अलंकारों से विभूषित होकर अनेक प्रकार के वाहनों से आकीर्ण, बड़ी तोंद वाले, आलस्य में दिन बिताते हुए भी प्रसन्न रहते हैं, खेलते-कूदते हैं और जो कुछ कहते हुए भी गर्वोन्मत्त होते हैं ।"
आश्चर्य है ! धूर्तों की वचन प्रणाली को कोई नहीं जान पाता ! उनके कथन में कुछ और, विचारों में कुछ और ही रहता है। उनका मधुर भाषण भी विषमिश्रित होता है । उनकी हंसमुख आकृति भी कषाय से कलुषित और विकृत होती है । उनका किसी को सम्मान भी अप्रत्यक्षतः माया का प्रपंच भाव होता है । उनकी क्षणमात्र की संगति भी प्रत्यक्ष दुर्गति है । अथवा ऐसा कौन-सा अकरणीय कार्य है जिसका दुर्जन व्यक्ति समाचरण नहीं करता | ज्यादा उनके विषय में क्या कहें ?
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पुनः वह वञ्चक धनदत्त मधु से लिप्त खङ्गधारा के समान वाणी में बोला -- ' इसलिए सौम्य ! मेरे साथ मेरे घर तक चल ! मैं तुझे तीन आना दूँगा ! मनुष्य की दृष्टि से तू भी मेरा भाई है । ज्यादा क्या कहूँ ।'
'यह कैसा कृपालु है' - ऐसा सोचता हुआ वह भद्र जिनदत्त उसके पीछे चला । काष्ठ भार नीचे डाला ! तीन आने लेने से इन्कार करते हुए भी धनदत्त ने उसे हठपूर्वक तीन आने ही दिए और उसे सांत्वना देते हुए कहा - 'आज के पश्चात् प्रतिदिन तुझे काष्ठ भार को बेचने के लिए अन्यत्र नहीं घूमना पड़ेगा, मैं ही उसे निश्चित मूल्य में ले लूंगा । गृहस्थों के घर में क्या क्या नहीं चाहिए, काष्ठ की तो नित्य आवश्यकता होती ही है ।'
'एक ही स्थिर ग्राहक हो गया ऐसा सोचकर यत्र-तत्र भ्रमण से संतप्त जिनदत्त प्रसन्न हो उठा । इस भद्र व्यक्ति को रहस्य का पता भी नहीं चला । इस प्रकार जिनदत्त उस धूर्त धनदत्त को प्रतिदिन महामूल्यवान हरिचन्दन का भारा साधारण काष्ठ के मूल्य में देने लगा । वह भी 'इस रहस्य को कोई जान न ले' ऐसा सोचकर उसको गुप्त रूप से लेकर छुपा देता था । उसने यह निश्चित किया कि अनुकूल अवसर को पाकर उस चन्दन को अन्यत्र भेजकर अतुल लाभ कमाना चाहिए । 'किन्तु जब कपट फलता है तब कैसा कलुषित परिणाम देता है ' -- वह उस मायावी धनदत्त ने नहीं जाना ।
इस प्रकार जिनदत्त का उदर निर्वाह सुखपूर्वक होने लगा ! प्राप्त धन से संतुष्ट भानुमती अपने विपत्तिकाल को आनन्दपूर्वक बिताने लगी। जब-जब
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