Book Title: Rayanwal Kaha
Author(s): Chandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
Publisher: Bhagwatprasad Ranchoddas

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Page 308
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૪ रयणवाल कहाँ तत्क्षण बिना कुछ देर किए निःसन्देह रूप से उनके साथ अपने घर चला जाऊँ । ओह ! दूसरे के घर में रहने का सुख भी क्या सुख है ? अपनी झोंपड़ी चाहे वह टूटी-फूटी हो, फिर भी वह अपनी है और दूसरे का घर बाहे वह कितना ही भव्य प्रासाद क्यों न हो, आखिर दूसरे का ही है । इस प्रकार कहता हुआ रत्नपाल जोर से रोने लगा । रत्नपाल की अकल्पित, अतर्कित और अप्रत्याशित बातों को सुनकर मन्मन ने किसी असहनीय और अतुल बेदना का अनुभव किया । उसके हृदय की धड़कन तेज हो गई । आँखें विस्फारित हो गई। इसकी लम्बी और दृढ़ आशा हिमखण्ड की तरह पिघल गई । उसने सोचा- अरे ! इसे कौन नागरिक धूर्त मिल गया जो कि मेरा जन्म जन्मान्तर का शत्रु वा ? हाय । उस दुष्ट ने सुघटित और सुमंडित मेरे वंश - प्रासाद को भूमिसात् कर दिया ! हे पिशुन ! मेरे कल्पना के कल्पतरु को उखाड़ कर तेरे हाथ क्या लगा ? हाय ! हाय ! चुगलखोरों का स्वभाव विचित्र होता है । वे दुष्ट अकारण ही दूसरों के दुःख से स्वयं सुख का अनुभव करते हैं और दूसरों के नाम से सन्तुष्ट होते है ! अरे ! इसका लालन पालन निरर्थक हो गया । ओह ! क्या पराये पुत्र से बर बसाया जा सकता है ? इस प्रकार बहुत विकल्प करता हुआ वह मन्मन कोई उपाय ढूँढ़ते हुए बोला- पुत्र ! किस पर सुख दुर्बल दुष्ट ने तुझे व्यर्थ ही भ्रान्त कर निरर्थक आशंकाओं में डाल दिया है ? जिनदत्त कौन है ? भानुमती' कौन है ? किस द्रोही ने ये कपोल कल्पित नाम प्रस्तुत किए हैं। भ्रान्त मत हो, शीघ्र चल और मेरे साथ भोजन कर ! देख अनेक व्यंजनों से संयुक्त यह सरस भोजन शीतल हो रहा है ! तेरी माता तेरी प्रतीक्षा कर रही है । वह तुझे न देख कर पागल सी हो रही है ।" 'श्रेष्ठिप्रवर ! यथार्थ वस्तु पर कपट का आवरण न डालें। अब तक बहुत हो चुका कि मुझे अन्धकार में रखा। अब मेरा ज्ञान प्रदीप प्रज्वलित हो गया है अथवा भ्रान्ति - शालिनी मेरी अज्ञान रूपी भामिनी विभासुर हो चुकी है । पहले मेरे प्रवास गमन की व्यवस्था करें। मैं बाद में ही कुछ भोजन करूंगा । खैर ! यदि यह वृत्तान्त मुझे पहले ज्ञात हो गया होता तो कितना सुन्दर होता ' बालक रत्नपाल ने यह बात निःशंक रूप से कही । मन्मन ने सोचा किस धूर्त ने इसे दृढ़ता से यह विपरीत पाठ पढ़ाया है ? आश्चर्य ! इसके स्वभाव में कैसी रूक्षता आ गई है । यह अत्यन्त लज्जालु और अल्पभाषी था, परन्तु आज कितना वाचाल और उद्दण्ड हो गया है । धिक्कार है, किसी मत्सरी व्यक्ति ने सारा निष्फल कर डाला । अब यह For Private And Personal Use Only

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