Book Title: Rayanwal Kaha
Author(s): Chandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
Publisher: Bhagwatprasad Ranchoddas

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Page 304
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रयणवाल कहाँ एक बार रत्नपाल अपने ग्राहक से ब्याज सहित धन लाने के लिए गया । किन्तु ग्राहक अपनी स्थिति के कारण धन लौटाने में समर्थ नहीं था । रत्नपाल बालक था । वह दूसरे व्यक्ति के अर्थ - पारतंत्र्य से अजान था । उसने कदाग्रह किया और वहीं बैठ गया ! उसने कहा 'आज मैं ब्याज सहित धन लिए बिना खाली हाथ नहीं लौटूंगा ! मैं अनेक बार यहां धन लेने के लिए आया हूँ, किन्तु तू कुछ न कुछ बहाना लेकर मुझे लौटा देता है । हाय ! धिक्कार है, मनुष्यों की नीति कैसी हो गई ? जब धन लेना होता है तब मीठे-मीठे बोलते हैं और कहते हैं आप ही हमारे संरक्षक हैं, पालक हैं और जीवनदान देने वाले हैं ! इस प्रकार वे बार-बार कहते हुए अद्वितीय सौजन्य प्रकट करते हैं। जब कार्य बन जाता है, हाथ में धन आ जाता है, तब वे दूर से निकलते हैं, मानो कि कोई सम्बन्ध ही न हो ! जब दाता उनसे धन लौटाने की बात करता है तब वे आंखें लालकर जो कुछ भी कहते हुए उत्तेजित हो जाते हैं । खेद ! कैसा विचित्र समय आया है कि लोग लिया हुआ धन लौटाना भी भूल जाते हैं । किन्तु मैं अपने दिये धन को थोड़ा भी नहीं छोड़ गा । आज तो मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि धन लिए बिना इस स्थान से नहीं हटू गा” ऐसा कहकर रत्नपाल वहीं पालथी लगाकर बैठ गया । रत्नपाल के सगर्व और रोषयुक्त वचन को सुनकर उसके ( प्रतिदाता के ) होठ क्रोध से कांप उठे ! उसने मन ही मन कहा 'अरे । यह दुधमुँहा वाचाल बच्चा कुछ का कुछ बक रहा है। मैं भी इसके अकथनीय अतीत को जानता हूँ । यह धृष्ट अपने त्यक्तगृह की स्थिति को नहीं जानता ! अरे ! यह स्वच्छंद भाषी ! नीति का उपदेश देते नहीं लजाता ! अतः मैं इसके समक्ष इसके माता-पिता का दुःखद वृत्तान्त प्रकट करूँ ।' ऐसा सोचकर क्रोध से अपनी आँखें लाल कर उसने गर्हा करते हुए कहा – 'अरे ! मौन रह ! व्यर्थ ही अपनी धृष्टता मत दिखा ! अरे महामूर्ख ! तू नहीं जानता कि तेरे T-पिता के प्रवास का कारण तेरा जन्म ही है । अरे क्रीतदास ! तू इतनी धृष्टता क्यों दिखा रहा क्या तेरे बाप ने मुझे धन दिया था। मेरे से अपना कलुषित अतीत सुनने के लिए यहां मत रह, यहाँ से निकल जा । जन्मांध ! क्या ऊँचा शिर किए घूम रहा है ? मैं तुझे कुछ भी नहीं दूँगा ! यहां तुझे मांगने का कोई अधिकार नहीं है ।" इस प्रकार रत्नपाल विकृत मुखाकृति वाले अपने ग्राहक के कर्कश वचन रूपी तीरों से ताड़ित और मर्माहित हो गया ! उसे उपालंभ का रहस्य ज्ञात नहीं हुआ । उसका मन शंकित और कलुषित हो गया और वह असमंजसता में पड़ गया ! उसने माता 1 For Private And Personal Use Only

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