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तीसरा उच्छ्वास
सोचा-यह अविचारित वाक्य रूपी पाषाणों को फेंककर मुझे क्यों उपालंभ दे रहा है और क्यों मेरा तिरस्कार कर रहा है ? इसने 'क्रोतदास' कहकर मुझे क्यों दूषित और कंलकित किया ? क्या मुझे जन्म देने वाले माता-पिता दूसरे हैं ? क्या वस्तुतः मन्मन मेरे पिता नहीं है ? अच्छा जब तक मैं रहस्य को स्पष्ट रूप से जान न लू तब तक मुझे इसे कुछ भी उत्तर नहीं देना चाहिए। ऐसा सोचकर रत्नपाल तत्काल हीं वहां से उठा । उसके मन में अनेक विकल्प झलने लगे। वह मौन रहा और रहस्य की गवेषणा में तत्पर होकर वहां से चला । मार्ग में एक बूढ़ा व्यापारी दूकान पर बैठा दीखा । विमनस्क रत्नपाल अतीत के रहस्य को प्रकट कराने के लिए अत्यन्त उत्सुक होकर उस बूढ़े के समीप आया।
हिम से दग्ध कमल की तरह रत्नपाल के म्लान मुख को देखकर, उसके कारण की गवेषणा करते हुए बूढ़े ने पूछा- 'वत्स ! आज तू गंभीर चिंता से विह्वल क्यों दीख रहा है ? प्रतिदिन प्रफुल्लित रहने वाला तेरा मुख-कमल
आज मुझे भयभीत और लज्जित क्यों प्रतीत हो रहा है ? तु मुझे बता शीघ्र बता, ताकि मैं तेरे दुःख का कुछ प्रतिकार कर सकू।"
दीर्घ और उष्ण निःश्वास छोड़ते हुए रत्नपाल ने सारा वृत्तान्त सहीसही सुनाया, और किस प्रकार उस ग्राहक ने 'क्रीतदास' शब्द से उसकी भर्त्सना की-यह भी कह डाला। "यहां क्या रहस्य हैं ? ऐसी कौन-सी गुप्त बात है ? हे तात । मैं ये सारी बातें यथार्थ रूप से जानना चाहता हूँ !"
रत्नपाल का प्रश्न सुनकर वह वृद्ध कुछ मुस्कराया, सारा अनुभूत अतीत उसके प्रत्यक्ष परिस्फुरित हो उठा । यह गोपनीय बात अवक्तव्य है इस प्रकार कुछ कह कर वह मूक की तरह बैठ गया । प्रत्युत्तर को सुनने के लिए उत्सुक
और विलम्ब को सहने में असमर्थ बालक के मुख को देखकर उस स्थविर ने निपुणता से थोड़ा रहस्योद्घाटन करते हुए कहा---'पुत्र ! यह संसार रूप महा समुद्र विचित्र है । यहाँ प्राणियों के लिए कौन-सा अघटित घटित नहीं होता ? तब तक ही मनुष्य उद्धत होता है, जब तक कि वह अतीत को प्रत्यक्ष नहीं कर लेता । आर्य ! जगत की दीखने वाली सारी लीला मृग-तृष्णा के अतिरिक्त कुछ नहीं है । यहाँ आशा केवल आकाश तुल्य ही है। भद्र ! रहस्योद्घाटन मत करो! तेरा वृत्तान्त कहने में मेरी जीभ लड़खड़ाती है तो भी यदि तेरी तीव्र जिज्ञासा है तो में तुझसे अज्ञात तेरे चरित्र की बात थोड़ी-सी बता दूं। सुन, तेरा पिता जिनदत्त नागरिकों से माननीय और बहुत धनाढ्य था। तेरी माता
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