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रयणवाल कहा
यहां हमारे चिरपालित धर्म की परीक्षा हो रही है । आज से आगे हम किसी की शरण नहीं लेंगे। जहां-कहीं हम स्वतंत्र जीवन यापित करेंगे। धन चला गया, इसका दु:ख नहीं है, किन्तु स्वाभिमान रूप अपना धन न खो जायइसकी चिन्ता है। उस ताड़ित, तिरस्कृत कृत के जीवन से क्या ? जहां मनुष्यों के गुणों का नाम मात्र भी मूल्यांकन नहीं है !' 'आर्यपुत्र' ! आप ही मेरे लिए प्रमाण हैं'- यों कहती हुई भानुमती मौन हो गई।
उन दोनों ने मध्याह्न दिन का आतप तालाब की पाल पर रहे एक वटवृक्ष के नीचे बिताया । अपराह्न में वे पुनः दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े । एक मुहूर्त रात बीत जाने पर उन्हें एक सुरक्षित वननिकुज मिला । वहाँ वे विश्राम के लिए बैठ गए। उन्होंने वन के फलों को खाकर अपना पेट भरा
और कदलीदल की शय्या बिछाकर सो गए। पुत्र के विरह के कारण उनकी नींद नष्ट हो चुकी थी। कदाचित् आंखें बंद होती तो भी वे प्रत्यक्षतः पुत्र को देखते हुए बड़बड़ाते ?- 'पुत्र ! माता की गोद के सुख से वंचित तू मत रो ! आशा से समीप वह समय भी दूर नहीं हैं जब कि हमारा चिरप्रतीक्षित मिलाप होगा। यह क्रूर काल समय के विपाक से बुबुदे की तरह विलीन हो जाएगा । सभी प्रतिकूल संयोग स्वयं नष्ट हो जायेंगे' इस प्रकार कहते हुए, कल्पना करते हुए जब जागते थे तब पुत्र को सामने न देखते हुए, 'यह सारा स्वप्न था'-ऐसा मानकर विधि को उपालंभ देते । इस प्रकार वे करवट बदलते हुए ज्यों-त्यों रात बिताई। प्रभात हुआ। उन दोनों ने प्रतिदिन किए जाने वाले प्रातःकालीन सामायिक आदि आवश्यक अनुष्ठान श्रद्धा और भक्ति से संपन्न किए । सत्पुरुषों का यही लक्षण है कि वे आपत्काल में भी धार्मिक कृत्यों को नहीं छोड़ते । क्या अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण स्वर्ण देदीप्यमान नहीं होता?
सूर्य के उदित होने पर वे आगे चले । इस प्रकार वे निरन्तर प्रयाण करते हए लम्बे मार्ग को लांघ गए। मार्ग में अनेक कष्टों को सहते हुए अनेक भीषण वन, अटवी, पर्वत, खाई और नदियों को ज्यों-त्यों पार करते हुए अपने पुत्र के विषय में अनेक कल्पना करते हुए वसन्तपुर नगर में आए । वह दक्षिणापथ का प्रमुख नगर था। वह अनेक प्रकार के व्यापारों के लिए प्रसिद्ध, रम्य और दर्शनीय था। दोनों ने यह भली-भांति परामर्श कर लिया कि उन्हें कहां जाना है ? क्या करना है और आजीविका कैसे चलानी है ? 'किसी दूसरे के आश्रय से जीवन नहीं बिताना है'- इस पूर्व निश्चय के अनुसार वे नगर में
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