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दूसरा उच्छ्वास मुखचन्द्र को देखकर परम प्रसन्न हुई। भाग्य ने उसके चिरपरिकल्पित दोहद की पूर्ति की। अनेक मित्र आनन्दित हुए और उन्होंने सेठ से उपहार प्राप्त किया।
जब मन्मन ने जिनदत्त के पुत्रोत्पत्ति की बात सुनी तब उसने पुत्र को लाने के लिए शीघ्र ही अपने सेवक भेजे। वे जिनदत्त के घर आए और बोले-'हम मन्मन के यहाँ से इस नवजात शिशु को लेने के लिए आए हैं।'
उनकी याचना सुनकर सेठ का हृदय सहसा टूट गया। उसने सोचा'हा ! हा ! अभी लेने आ गए ? इतना अविश्वास ? तो भी अपने भाव को छिपाता हुआ उदास मुख से वह बोला- "भद्र ! आज ही पुत्र जन्मा है । अभी तक कोई उत्सव नहीं किया है । पुत्र का नाम भी नहीं रखा है । अभी प्रीतिभोज आदि भी नहीं किए हैं । आप अपने स्वामी से कुछ प्रतीक्षा करने की प्रार्थना करें। मैं उनकी वस्तु उनको निश्चित रूप से समर्पित करूँगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। किन्तु उस उदारमना महानुभाव को सत्ताईस दिनरात तक ठहरना होगा।"
सेवक लौट गए । सारी घटित बातें मन्मन को कह सुनाई। मन्मन का अविश्वस्त मन चिन्ता से व्याकुल हो गया। 'जिनदत्त अपनी भार्या के साथ बालक को लेकर भाग न जाय, इसलिए मैं पहले ही संरक्षण करू'-ऐसा सोचकर मन्मन ने तत्काल अपने सशस्त्र पुरुषों को बुला भेजा। उन्हें आज्ञा देते हुए कहा---- 'तुम्हें जिनदत्त के भवन के सामने जागरूकता से रहना है और रात-दिन यह देखना है कि कुछ अनिष्ट घटना घटित न हो जाए और अतीत में निश्चित किए हुए काल के अनुसार बच्चे को लेकर मेरे पास आ जाना है।'
सशस्त्र पुरुष शीघ्र ही वहां आ गए और भवन के आगे जागरूकता से बैठ गए। 'कौन बाहर आ रहा है, कौन अन्दर प्रवेश कर रहा है- इस बात को वे सलक्ष्य और सावधानी से देख रहे थे। सेठ ने बालक का अपूर्व जन्ममहोत्सव सम्पन्न किया । इस अवसर पर उसे अनेक शुभसंदेश प्राप्त हुए। अनेक स्वजन वहाँ सम्मिलित हुए। अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप सेठ ने प्रीतिभोज आदि कार्य किए और यथोचित दान दिया। बालक की भुआ ने बालक का शुभनाम 'रत्नपाल' रखा । परम प्रेम से पोषित कौटुम्बिक जन बालक को शुभ आशीर्वाद देते हुए अपने-अपने स्थान पर लौट गए।
क्षणों की तरह अलक्षित ही सत्ताईस रात-दिन बीत गए। अपने परम प्रिय पुत्र के दर्शन में बाधा उपस्थित करने वाला प्रातःकाल उदित हुआ।
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