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रयणवाल कहा
बांझ भानुमती ने देखा। तत्क्षण वह बाल-शून्य अपनी गोद को निहारकर अगाध शोक-सागर में डब गई। उसने सोचा-'हाय ! मेरा जन्म निरर्थक है। मैंने व्यर्थ ही स्त्रीत्व प्राप्त किया है । हाय ! निर्लज्ज विधि ने हमें व्यर्थ ही अतुल संपत्ति दी। ओह ! चारों ओर अंधकार दीख रहा है । हाय ! किसके आगे अपना दुःख प्रस्तुत करूँ ? धन्य हैं ये माताएँ, कृतपुण्य हैं ये माताए जिन्होंने साक्षात् पुण्यफल की तरह सुदुर्लभ पुत्र के मुख को देखा है । ओह ! वे माताएं किस निरुपम अनुभवगम्य सुख का संवेदन करती होंगी, जिनके कानों में क्रीडारत बालकों का कोलाहल पड़ता रहता है । ओह ! बालकों की व्याकरण के नियमों से रहित तुतली बोली भी इक्षुखण्ड से भी अधिक मधुर होती है। ओह ! मैं वह स्वर्णिम दिन कब देखू गी जबकि मेरी गोद बच्चों से भरी होगी। हाय ! मैंने पुत्र-प्राप्ति के लिए कितने अगणित यंत्र-मंत्र और तंत्र के उपाय किए हैं, किन्तु किसी ने भी कोई प्रतिफल नहीं दिया। मैं मानती हैं कि अग्नि में डाली हुई आहुति की भाँति वे सारे प्रयत्न निष्फल होगये । ओह ! जड़प्रकृति का राज्य कितना अव्यवस्थित और अविचारित है कि इस राज्य में कुछ भी यथार्थ नहीं होता। जहाँ दारिद्रय का निश्चल निवास है, वहाँ अपार परिवार की वृद्धि होती है। किन्तु जहाँ के भंडार मोतियों से परिपूर्ण है वहाँ द्वितीया के चन्द्र की तरह एक भी बालक नहीं दीखता।' इस प्रकार भानुमती विविध प्रकार के विकल्पों के ताप से उत्तप्त होकर शीघ्र ही जोरजोर से रोने लगी। आँखों का अञ्जन आंसुओं के साथ बहकर उसके गोरे गालों को मलिन करने लगा। 'बस इस मनोरथ शून्य जीवन से बहुत हो चूका'-- इस प्रकार सोचती हुई वह हिमशीत से दग्ध कमलिनी की भाँति शोभा-विहीन हो गई। सचेतन वह भानुमती उच्छ्वास और निःश्वास लेती हई भी लहार की धमनी की भाँति चेतना रहित होगई।
आश्चर्य ! मोह की विडम्बना अलक्षित होती है। पुत्र-पौत्रों से युक्त व्यक्ति भी खेद-खिन्न होते हैं और उनसे रहित भी खिन्न होते हैं। मोह-रूपी मदिरा की सूक्ष्म अशान रेखा दुरधिगम होती है। सुख के संकल्प में दुःख
और दुःख में सुख हो जाता है। वस्तुत: पौद्गलिक पदार्थों से प्राप्त क्या सुख और क्या दुःख ? इस संसार में उत्साह का परिणाम भी शोक से आविष्ट होता है। खेद है कि इतना होने पर भी कषाय से कलुषित जीव, तीर्थकर द्वारा कथित धर्म पर न श्रद्धा करता है, न विश्वास और न उसमें रुचि रखता है।
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