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रयणवाल कहा
होता है। स्वपन में भी जिन दिवसों की कल्पना भी नहीं करता था, वे दिन प्रत्यक्ष सामने आगए हैं । जो स्नेहीजन मुझ से अत्यन्त परिचित थे, वे भी स्नेहहीन होगए हैं।"
'धिग् धिग ! जगत की प्रीति स्वार्थपरक होती है । कौन किसका है-- यह नहीं कहा जा सकता है। तो भी कैसा ममत्व है ? विचित्र प्रकार की मूर्छा होती है । अव्याकृत आसक्ति होती है। ओह ! यह महान कौतूक है । जो व्यक्ति अत्यन्तहीन अवस्था में थे, तुच्छ और अकिंचन थे, वे मेरे प्रयत्नों से बड़े बने और जो यह कहते थे कि हम आपका उपकार जीवन भर नहीं भूलेंगे वे आज विमुख और दूर हो रहे हैं । निश्चित ही किसी का दोष नहीं है । यह सारी भाग्य की चपलता है। क्या यक्षपुंगव ने यह पहले ही नहीं कह दिया था ? इसलिए हमें चिन्ता नहीं करनी चाहिए। प्राप्त विपदा को हम सहन करेंगे, स्वयं अपने हाथों से लिया हुआ कष्ट अन्यथा कैसे होगा ?"
गर्भवती भानुमती का सातवां महीना प्रारम्भ हुआ। प्रतिदिन प्राप्त होने वाले अशुभ समाचारों से वह उत्त्रस्त होती, किन्तु गर्भगत तेज को देख कर सुख का अनुभव करती थी। एक बार समयज्ञ भानुमती ने पतिदेव से कहा--"आर्यपुत्र ! मेरे गर्भ का सातवां महीना चल रहा है। क्या आप पुत्र के निमित्त कोई भी अनुष्ठान नहीं करेंगे ? नगर में अपनी प्रतिष्ठा कैसी है। प्रथम अवसर पर साधारण लोग भी अपने सामर्थ्य के अनुमार कुछ न कुछ करने के लिए प्रयत्न करते हैं। आप तो लब्धप्रतिष्ठ हैं। राजा के द्वारा भी आप सम्मानित हैं। ऐसी स्थिति में आप अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप कार्य करने की क्यों नहीं सोचते ?"
___ अपनी ही चिन्ता से म्लान सेठ ने कहा--"प्रिये ! सातवें महीने में प्राप्त 'साध पुराई' का कृत्य मुझे याद है। अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप सब कुछ करू-ऐसा मेरा उत्सुक मन चाहता है। किन्तु धन के अभाव में सारी दिशाएं शून्य हैं। उसके बिना कैसा महोत्सव ? हा ! यह जनश्रुत सत्य है कि दरिद्रता के समान कोई पराभव नहीं है । हाय ! क्या करू ? कहाँ जाऊँ ? प्रयत्न करने पर भी किसी से उधार के रूप में भी धन नहीं मिल रहा है। स्वजन तो मेरे से बातचीत भी नहीं करते । चिर परिचित मित्र मुझे आँख से देखने में भी लज्जा का अनुभव करते हैं। यह कुछ याचना करेगा इस शंका से वे दूर से ही भाग जाते हैं।"
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