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रयणवाल कहा
जैसे व्यक्तियों के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । मित्र ! गाढ़ कारण के बिना कौन किसकी देहली पर याचना करने के लिए आता है ?" इस प्रकार कहते हुए सेठ जिनदत्त की आंखें डबडबा आई।
जिनदत्त की प्रार्थना को सुनकर कृपण मन्मन विचारों में डूब गया । वह सोचने लगा कि इसे क्या जबाब देना चाहिए ? 'आहार और व्यवहार में लज्जा नहीं रखनी चाहिए'- ऐसा सोचकर मन्मन ने सिर धुनते हुए कहा--- "मित्र ! मैं ऐसे चिन्ता जाल में फंस गया है कि उससे निकलने का मार्ग दीख नहीं पड़ता । एक ओर आज तक पालन किया हुआ मेरा अदानव्रत है और दूसरी ओर मेरे परम मित्र की सामयिक प्रार्थना है। मैं क्या करू और कहाँ जाऊँ ? इसका निर्णय मेरा मूढ़ मन नहीं कर पा रहा है । मैं विपत्ति के वशवर्ती व्यक्तियों की स्थिति जानता हूँ, किन्तु मित्र ! मैं इस विषय में कुछ भी करने में असमर्थ हूँ।"
लज्जा से नीचे देखते हए जिनदत्त ने पुनः कहा--"भ्रात ! मैं दान रूप में धन नहीं चाहता, किन्तु उधार चाहता हूँ। यदि तू देना चाहे तो अपनी उदार भावना का परिचय दे।"
मन्मन स्वभावतः महान लोभी था। उसे इस बात की आशंका थी क्या भविष्य में वह मेरा धन मझे लौटा देगा? उसने कहा.----."बन्धूवर ! मैं और क्या कहूँ ? मैं वस्तु के विनिमय के बिना कुछ भी देने में असमर्थ हूँ। तुम वस्तु के परावर्तन के द्वारा जो कुछ चाहो प्राप्त कर सकते हो। खेद है कि मेरी जीवन पर्यन्त की ऐसी ही प्रतिज्ञा है।" ___ जिनदत्त का मुख कमल मुरझा गया। उसने कहा--- "अरे ! यदि रखने योग्य कोई वस्तु होती तो उसके विनिमय से धन देने वाले सैकड़ों व्यक्ति इस नगर में मिल सकते हैं । यही महान कष्ट की बात है कि वैसी वस्तु मेरे पास नहीं है । भ्रात ! पुनः कुछ ध्यान दो।" ।
वज्र की तरह कठोर हृदय वाले मन्मन ने स्पष्ट कहा--"मेरे पास उसका कोई उपाय नहीं है। ज्यादा क्या कहूँ ? मेरी प्रतिज्ञा भंग होती है। इसलिए तुम सुख से अन्यत्र जाओ। अनेक उदार धनी लोग इस नगर में है ।" ___'अन्यत्र कहाँ जाऊँ"--इस प्रकार चिन्ता करते हए सेठ जिनदत्त ने अन्त में निश्चय किया कि-"मैं गर्भस्थ पुत्र के विनिमय के द्वारा धन प्राप्त करू।" कुछ विमर्श कर जिनदत्त ने दीर्घ निःश्वास के साथ मन्मन से कहा
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