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रयणवाल कहा
भूमि पर अवतरित होकर मैं ही एक ऐसी हूँ कि जिसे स्त्रियों की पंक्ति में नगण्य स्थान प्राप्त है।" ____“प्रियवर ! आपके इस वज्र जैसे कठोर हृदय में खेद क्यों नहीं होता? अपना विवाह हुए कितना काल बीत चुका परन्तु भाग्य ने हमें एक भी कुलदीपक सतान की प्राप्ति नहीं कराई। मैंने कभी स्वप्न में भी संतान की बात नहीं सूनी । अनेक उपाय किये। थोड़े समय तक उनसे आशा का प्रकाश दीखा, किन्तु अन्त में वे भी फेन के बुदबुदों की तरह विलीन हो गए । कुल सूर्य के समान पुत्र बिना अपनी अतुलसंपत्ति की रक्षा कैसे होगी ? संपूर्ण पुरजनों में प्रतिष्ठित आपका नाम क्या आगामी वंश-परम्परा में विस्मृत नहीं हो जाएगा ?" इस प्रकार गद्गद् स्वर में बोलती हुई भानुमती पुनः रोने लगी। ___भानुमती के हृदय में प्रज्वलित शोकाग्नि को ज्यों-त्यों बुझाकर जिनदत्त ने कहा- "सुभगे ! तू तत्त्वों को जानती है, फिर भी तू निरर्थक चिन्ता के वितान को क्यों पकड़े हुए है ? क्या तू नहीं जानती कि भाग्य रेखा अनुल्लंघनीय होती है ? प्रत्येक पामर प्राणी को अपने किए हुए कर्मों का भार चाहेअनचाहे वहन करना ही पड़ता है। हम प्रतिदिन पुत्र-प्राप्ति के लिए कोई न कोई उपाय करते ही रहते हैं फिर भी यदि हमारी आशा फलीभूत नहीं होती है तो इसे अन्तराय कर्म कृत ही जानना चाहिए।" ____ "अभी तक कुछ भी नहीं बिगड़ा है यदि अपने कष्टों के बादल समूह पुण्य की वायु से प्रताड़ित होकर नष्ट हो जाय तो शीघ्र ही अपना मनोरथों का कल्पवृक्ष फलित और पुष्पित हो सकता है।"
"आशा अमर धन है"--यह प्रसिद्ध लोकोक्ति है। इसलिए हमें हताश नहीं होना चाहिए।
उसी क्षण वहाँ यक्ष और यक्षिणी का युगल प्रादुर्भूत हुआ । रुदन करती हुई भानुमती की अनुकम्पा से प्रेरित होकर यक्षिणी ने आगे चलने वाले यक्ष को अनुरोध कर उसे दर्शन दिए । यक्षिणी ने सहानुभूति पूर्ण मधुर शब्दों से चिन्ता के प्रयोजन की जिज्ञासा की। भानुमती रुदन करते हुए युगल को प्रणाम कर चिन्ता का सम्पूर्ण कारण बताते हुए कहा- "मैं इस पुत्रवन्ध्य शून्यजीवन को चिरकाल नहीं ढो सकती। हमारा यह शुभ दिन है कि हमें अनायास ही आपके दिव्य-दर्शन प्राप्त हुए हैं। निश्चित ही हमारे कष्ट नष्ट हो जाएंगे। मंगलों का आगमन होगा और शुभ भविष्य का उदय होगा।
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