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पहला उच्छ्वास
___इतने में जिनदत्त श्रेष्ठी उसके पास आ पहुँचा । उमने भानुमती के म्लान
और अश्रुस्नात मुखकमल को देखकर सोचा कि अवश्य ही कुछ अशुभ घटना घटी है । वह अतुल वेदना का अनुभव करता हुआ प्रेमयुक्त मधुरवाणी में बोला-"प्रिये ! आज तू विमनायमान क्यों है ? कौन ऐसा मंदभाग्य व्यक्ति था जिसने तुम्हारा मन दुखाया है। उस दुष्ट का नाम तू मुझे शीघ्र ही बता ताकि मैं उसे पकड़ सकू और उस दुःसाहसी को मैं कठोर प्रायश्चित्त देकर उसके दर्प का नाश कर सकू।" कोमल रूमाल से उसके अधरस्थ आँसुओं को पोंछते हुए उसे अपनी चिन्ता का कारण बताने के लिए कहा, किन्तु वह मौन थी। उसने एक अक्षर भी नहीं कहा । प्रत्युत टूटे हुए मोतियों की माला की तरह उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे और वह अधिक दुःख में डूब गई।
जिनदत्त ने कहा-"प्राणप्रिये ! तू मौन रहकर मुझे क्यों दुःखित कर रही है ? तेरी उदासी का कारण मुझे ज्ञात नहीं है ऐसी दशा में मैं उसका प्रतिकार कैसे करू ?' उम गृहस्थाश्रम को धिक्कार है जहाँ प्रतिकूलता को प्राप्त स्त्रीजन मन में विषाद का अनुभव करती है। जहाँ पुरुष नारी का अपमान करते हैं, वहाँ विपत्ति रूप बिजली गिरने वाली है। मैं अपनी अर्धाङ्गिनी के दुःख को सहने में असमर्थ हूँ। वह दुःख दूर किया जा सकता है। इस प्रकार कहते हुए जिनदत्त ने अपनी पत्नी का आलिंगन कर बिना कारण ही उत्पन्न शोक के कारण को प्रकट करने के लिए उससे अनुरोध किया।
पति के इस प्रेमपूर्ण व्यवहार से पत्नी ने अपने आपको आश्वस्त किया। उसने पतिदेव का अभिनन्दन किया और उसे ज्यों-त्यों अपनी चिन्ता का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसने कहा - "आर्यपुत्र ! आज मैं भोजनादि गृहकार्यों को सम्पूर्ण रूप से संपन्नकर गवाक्ष में बैठी थी। अचानक ही मेरी दृष्टि चौराहे पर जा पड़ी जहाँ पुत्र-पुत्रों के परिवार से घिरी हुई स्त्रियाँ घूम रही थीं। उन्हें देखकर मेरे हृदय में पुत्र-प्राप्ति की प्रसुप्त भावना जाग उठी । मैंने सोचा-धन्य और भाग्यशाली हैं ये स्त्रियाँ, जिनके समक्ष धूलिधूसरित बालक कभी कुछ मांगते हुए, तुतली बोली में बोलते हुए, कभी हँसते हुए, कभी रोते हुए, कभी विशिष्ट वस्तु को लेने की हठ पकड़ते हुए क्रीड़ा करते हैं, खेलते हैं और पृथ्वी पर लोटते हैं। मैं कैसी अधन्या और अपुण्या हूँ कि जिसमें बंजर भूमि की भाँति एक भी बीज प्रस्फुटित नहीं हुआ। इस
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