Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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स्याद्वादमं.
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और रोगी उस कडवी औषधको अपने आराम होनेके लिये नेत्र बंद करके पी जाता है। वैसें ही यद्यपि वर्त्तमानमें यह उपदेश उनको अच्छा नही लगैगा । तथापि भविष्यमें सुख देनेवाला है, इसलिये इस उपदेशपर उनको नेत्रबंद करके विचार करना ही चाहिये । ननु च यदि पारमेश्वरे वचसि तेषामविवेकातिरेकादरोचकिता तत्किमर्थं तान्प्रत्युपदेशक्लेश इति । नैवं परोपकारसारप्रवृत्तीनां महात्मनां प्रतिपाद्यतां रुचिमरुचिं वानेपेक्ष्य हितोपदेशप्रवृत्तिदर्शनात् । तेषां हि परार्थस्यैव स्वार्थत्वेनाभिमतत्वात् । न च हितोपदेशादपरः पारमार्थिकः परार्थः । तथा चार्षम् ।“ रूस वा परो मावा विसंवा परियत्तउ || भासियव्वा हिया भासा सपक्खगुणकारिया । १ । ” उवाच च वाचकैमुख्यः“न भवति धर्मः श्रोतुः सर्वस्यैकान्ततो हितश्रवणात् ॥ ब्रुवतोऽनुग्रहबुद्ध्या वक्तुस्त्वेकान्ततो भवति । १ । इति वृत्तार्थः ।
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शंका- यदि अज्ञानकी अधिकतासे उनको अर्हन्त परमेश्वरके वचनमें अरुचि है, तो आप उनके प्रति उपदेश देनेका परिश्रम किसलिये करते है ? समाधान — ऐसा कहना ठीक नही है । क्योंकि, अन्यका उपकार करना ही है सारभूत वर्त्तीव जिनके, ऐसे जो महात्मा है,वे शिष्यकी रुचि अथवा अरुचिकी अपेक्षा न करके ही हितरूप उपदेशके देनेमें प्रवृत्ति करते है, ऐसा देखा जाता है। क्योंकि, वे परार्थ ( परोपकार ) ही को स्वार्थरूप मानते है । और परमार्थसे ( वास्तवमें ) हितोपदेशके सिवाय दूसरा कोई परोपकार नहीं है । इस विषय में ऋषियोंका वाक्य भी है कि, " जिसको उपदेश दिया जावे वह रोष करे अथवा न करै, वा चाहे वह उस उपदेशको विषरूप समझै । परन्तु ऐसे ही वचन बोलने चाहियें जो कि निजपक्षको गुण करें अर्थात् जिसमें अपना हित हो, वैसा ही उपदेश देना चाहिये, १1" और वाचकमुख्य ( श्रीउमाखातिजी ) भी कहते है कि – “ हितरूप उपदेशके श्रवण करनेसे संपूर्ण श्रोताओंको धर्म होवै ही, ऐसा एकान्त अर्थात् निश्चय नहीं है, परन्तु अनुग्रह बुद्धिसे जो हितोपदेशका कहनेवाला है। उसको तो नियमसे धर्म होता ही है । १ । " इस प्रकार तृतीय काव्यका अर्थ है ॥ ३ ॥
अथ यथावन्नयवर्त्मविचारमेव प्रपञ्चयितुं पराभिप्रेततत्त्वानां प्रामाण्यं निराकुर्वन्नादितस्तावत्का व्यष्ट्र के नौलूक्यमताभिमततत्त्वानि दूषयितुकामस्तदन्तःपातिनौ प्रथमतरं सामान्यविशेषौ दूषयन्नाह ॥
१ शिष्यविषयां । २ वानवेक्ष्य इत्यपिपाठ: । ३ रुषतु वा परो मा वा, विप वा पर्यटतु । भाषितव्या हिता भाषा, स्वपक्षगुणकारिका 191 इतिच्छाया. ४ उमास्वातिरिति ।
रा जै. शा.
॥ १० ॥