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अगर कोई बोलता है तो हम क्या कर सकते है? उसके शब्द/बातें कान में जायेंगी ही न, क्या कर्ण में अंगूली डालनी? वेदव्यासजी कहते है, हाँ यदि आप ऐसी जगह पहुँच गये हो जहाँ निंदा सुननी ही पड़े, वैसा हो तो कान में अंगूली डाल दो। क्या? सभी लोगों के बीच में कान में अंगूली डालनी? कितना अभद्र दिखेगा। क्या दूसरा उपाय नहीं है? वेदव्यासजी कह रहे है अगर आप कान में अंगुली नहीं डाल सको वैसा हो तो उस जगह से रवाना हो जाओं। किसी की निंदा करनी नहीं, कोई कर रहा हो तो कान बंद कर लेना, या वहाँ से चले जाना। किसी आदमी की कोई बात हमें पसन्द न हो तो मुझे यह बात पसन्द नहीं हैं ऐसा कहने में क्या तकलिफ हैं? क्या इसमें भी निंदा का दोष लगता है? विचित्र जगत है, विचित्र लोग हैं, विचित्र व्यवहार हैं, सबका सब ही अच्छा लगे यह जरूरी नहीं हैं। जो हमें अच्छा न लगता हो उसे कम से कम दूर करना चाहिए। हमें दूसरों का टेढ़ापन अच्छा न लगता हो तो कम से कम खुद में रहा टेढ़ापन दूर करना चाहिए न? जब हम दूसरे की ओर एक अंगूली करते है तब शेष अंगूलियाँ अपनी ओर झूकी होती हैं। यह भूलने जैसा नहीं है, अन्य में जितने दोष है उससे तीन गुना तुझमें है, झूकी हुई तीन अंगुलियाँ यहीं दर्शा रही है। अच्छा, कोई दोष हमें अच्छा नहीं लगता तो निंदा करने से क्या फायदा? हमारी निंदा से वह दोष मुक्त नहीं हो जायेगा। जो-जो दोष हमें अच्छे न लगते हो उन्हे जीवन से बाहर निकालने चाहिए। इसमें तो हम स्वतन्त्र है जिस दोष की हम निंदा कर रहे है, वही दोष कहीं हममें तो नहीं हैं न! आदमी अधिकांश किसकी निंदा करता है? बड़े आदमी की, जैसे बड़े आदमी की प्रसिद्धि बड़ी वैसे निंदा भी रहेगी। बड़े आदमियों के दोष जल्दी नजर आते हैं। आदमी की वृत्ति ही कुछ इस प्रकार की हैं। देखों, इतने बड़े आदमी में भी इतने दोष है, तो हम तो छोटे लोग हैं, हमारी तो बात ही क्या? हम तो उनसे बहुत छोटे हैं। कालिदासजी कह रहे हैं कि महापुरूषों के निंदा की बात तो दूर रही उनकी निंदा सुननी भी नहीं चाहिए। अरे वाह! सुनने में क्या हर्जा है? आप सुनते नहीं तो वह बोलता? जंगल में जाकर तो बोलेगा नहीं न । आप सुनकर उसे प्रोत्साहित कर रहे हैं। आप उसकी बात सुने ही नहीं तो उसे बोलने का
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