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निन्धो न कोऽपि लोको
(लोक में किसी की भी निंदा नहीं करनी) मेरा एक प्रश्न है, आपको जबाव देना है। ऐसा कौन सा रस है जिसका त्याग मुश्किल हैं। जिसको छोड़ना कठिन हैं। मोसंबी का? संतरे का? आम का? सिरड़ी का? निंबू का? अनार का? करेले का? अनानस का? नही, ये सारे रस तो सहजता से त्यागे/छोड़े जा सकते है। परन्तु मुश्किल है निंदा रस त्याग । इन सब रसों का त्याग करने वाला भी निंदा रस का त्याग नहीं कर सकता है। साहित्य में नौ रस बताये हैं श्रृंगार रस, हास्य रस, करूण रस, रौद्र रस, वीर रस, भयानक रस, बिभत्स रस, अद्भूत रस और शांत रस । परन्तु इन सभी रसों से बढ़कर निंदा रस हैं। बेचारें साहित्यकार निंदा रस को स्थान देना भुल गये लगता है, निंदा को भी रसों में स्थान मिला होता तो शायद रसाधिराज शांतरस न होता, निंदा रस होता । कामकाज की बातों के शिवा अपनी व्यर्थ की बातों में मुख्य रूप से लगभग क्या होता है? बहुधा हम किसी की निंदा ही करते रहते है। किसी जगह पर चार मिले नहीं कि पाँचवें की निंदा शुरू हुई समझों। चार में से एक चला गया तो शेष बचे तीन, चले गये चौथे की निंदा किये बिना नहीं रहेंगे। निंदक मण्डली में बैठकर निंदा की प्यालियाँ भर-भर कर पीने वालों को समझ लेना चाहिए कि अभी दूसरे की बुराई हो रही है, परन्तु जैसे ही मैं गैर मौजूद रहुंगा तो मेरी भी निन्दा होने वाली हैं। हम दूसरे की निंदा करते हैं और दूसरा हमारी निंदा करता हैं । यूं जीवन को हम सार्थक बनाते रहते हैं। महाभारत के रचनाकार वैदव्यासजी ने हमारी कमजोरी की तरफ रेड सिग्नल किया कि मेहरबानी करके किसी की भी निंदा मत किजिए । चलो बस! निंदा नहीं करेंगे, आपकी बात मान ली, पर दूसरा कोई निंदा करता हो तो क्या करना? किसी की निंदा के शब्द हमारे कान में जाएं तो क्या करना? आँख तो बंद कर ले, परन्तु कान कैसे बन्द कर ले। कान के थोडी ना पलके हैं! वेदव्यासजी कह रहे है कि निंदा किजिए भी मत और निंदा सुनिये भी मत, क्योकि निंदा करने में पाप है वैसे निंदा सुनने में भी पाप हैं। आप लोग कहेंगे
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