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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
LLमैं काम-भाव विध्वंस करूँ, ऐसा दो शील हृदय स्वामी।। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। मैं क्षुधा-रोग से व्याकुल हूँ, चारों गति में भरमाया हूँ। जग के सारे पदार्थ पाकर भी, तृप्त नहीं हो पाया हूँ ।। नैवेद्य समर्पित करता हूँ, यह क्षुधा-रोग मेटो स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । मोहान्ध महा-अज्ञानी मैं, निज को पर का कर्ता माना। मिथ्यातम के कारण मैंने, निज आत्मस्वरूप न पहिचाना।। मैं दीप समर्पण करता हूँ, मोहान्धकार क्षय हो स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। कर्मों की ज्वाला धधक रही, संसार बढ़ रहा है प्रतिपल । संवर से आस्रव को रोकूँ, निर्जरा सुरभि महके पल-पल ।। यह धूप चढ़ाकर अब आठों कर्मों का हनन करूँ स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।। ___ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। निज आत्मतत्त्व का मनन करूँ, चितवन करूँ निज चेतन का। दो श्रद्धा-ज्ञान-चरित्र श्रेष्ठ, सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का।। उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ, निर्वाण महाफल हो स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जल चन्दन अक्षत पुष्प दीप, नैवेद्य धूप फल लाया हूँ। अबतक के संचित कर्मों का, मैं पुंज जलाने आया हूँ।। यह अर्घ्य समर्पित करता हूँ, अविचल अनर्घ्य पद दोस्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।