________________
116
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
n
अग्नि मांहि जल सम विला, भोजन पय हो जाय। मल कफ मूत्र न परिणमें, जनूँ यती उमगाय ।।२३।। ॐ ह्रीं श्री तप्तऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२१।। मुक्तावली महान तप, कर्मन नाशन हेतु । करत रहें उत्साह से, जजूं साधु सुख हेतु ।।२४।। ॐ ह्रीं श्री महातपऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२२।।
कास श्वासज्वर ग्रसित हो, अनशन तप गिरिसाध। दुष्टन कृत उपसर्ग सह, पूर्जे साधु अबाध ।।२५।। ॐ ह्रीं श्री घोरतपऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२३।। घोर घोर तप करत भी, होत न बल से हीन ।
उत्तर गुण विकसित करें, जजूंसाधु निज लीन ।।२६।। ॐ ह्रीं श्री घोरपराक्रमऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२४।।
दुष्ट स्वप्न दुर्मति सकल, रहित शील गुण धार ।
परमब्रह्म अनुभव करें, जजूं साधु अविकार ।।२७।। ॐ ह्रीं श्री घोरब्रह्मचर्यऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२५।।
सकल शास्त्र चिन्तन करें, एक मुहूर्त मंझार। घटत न रुचि मन वीरता, जजूं यती भवतार ।।२८।। ॐ ह्रीं श्री मनोबलऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२६।। सकल शास्त्र पढ़ जात हैं, एक मुहूर्त मंझार। प्रश्नोत्तर कर कण्ड शुचि, धरत यजूं हितकार ।।२९।। ॐ ह्रीं श्री वचनबलऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२७।। मेरु शिखर राखन वली, मास वर्ष उपवास ।
घटे न शक्ति शरीर की, यजूं साधु सुखवास ॥३०॥ ॐ ह्रीं श्री कायबलऋद्धिप्राप्तेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा।।२२८।।
u