Book Title: Pratishtha Pujanjali
Author(s): Abhaykumar Shastri
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 215
________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि 215 गगन तुल्य निर्लेप, सिन्धु सम हो, गंभीर गुणों की खान। । आचार्यों के चरण कमल में निर्मल मन से करूँ प्रणाम।।6।। इस संसार भयानक वन में भटक रहे जो भवि प्राणी। तव प्रसाद से ही पाते हैं मोक्षमार्ग नित सुखदानी।।7।। अशुभ लेश्या से विहीन तुम शुभ लेश्याओं से संयुक्त। आर्त-रौद्र दुर्ध्यान रहित हो धर्म शुक्ल से हो संयुक्त ।।8।। अवग्रह ईहा अरु अवाय धारणा गुणों से भूषित हो। हे श्रुतार्थ भावना सहित गुरु तुम्हें भाव से नमन करूँ।।9।। प्रभो! आपका गुण स्तवन मुझ अज्ञानी से किया गया। गुरु भक्ति संयुक्त मुझे, हो बोधिलाभ उपलब्ध सदा।।10।। अंचलिका हे प्रभु! सूरि भक्ति करके अब मैंने कायोत्सर्ग किया। इसमें लगे हुए दोषों का अब मैं आलोचन करता।। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित युत पंचाचार धरें आचार्य। श्रुत उपदेशक उपाध्याय, रत्नत्रय लीन रहें मुनिराज।। अर्चन पूजन वंदन नमन करूँ होंवे दुख कर्मक्षय। बोधिलाभ हो सुगति गमन हो जिनगुण संपत्ति हो अक्षय।। (वीरछन्द) मैं अनगार गुणों से भूषित गणधर की स्तुति करता। दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजुलि धर वंदन करता।।1।। दो प्रकार के भाव जीव के सम्यक् और कहे मिथ्या। तज मिथ्यात्व गहें जो सम्यक् मैं उनको वंदन करता।।2।। राग-द्वेष से मुक्त, दण्डत्रय से विमुक्त, त्रय शल्य विहीन। गारवत्रय प्रविमुक्त, रत्नत्रय से विशुद्ध को नमन करूँ।।3 44

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