Book Title: Pratishtha Pujanjali
Author(s): Abhaykumar Shastri
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 227
________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि 227 क्रुद्ध सर्प से डसे मनुज के दुर्जय विष का तीव्र प्रभाव। विद्या, औषधि, मन्त्र, हवन, जल से हो जाता शीघ्र प्रशान्त।। जो भविजन प्रभु के चरणाम्बुज की स्तुति सन्मुख होते। क्या आश्चर्य कि उनके आधि-व्याधि विघ्नादि शान्त होते। 2 ।। तप्त स्वर्णगिरि की शोभा से ईर्ष्या करती जिनकी कान्ति। प्रभु-चरणों में वन्दन से जग की पीड़ा हो जाती शान्त ।। प्रातकाल दैदीप्यमान रवि-किरणों का पाकर आघात। यथा नेत्र की कान्ति विनाशक निशा विलय को होती प्राप्त ।।३।। त्रिभुवन अधिपतियों पर विजय प्राप्त करने से गर्व हुआ। कालरूप दावानल जग में अतिशय क्रूर प्रचण्ड हुआ।। बच सकता संसारी प्राणी कहो कौन किस विधि द्वारा। तव पद-पङ्कज की स्तुति सरिता ने यदि न उसे तारा।।4।। लोकालोक झलकते जिसमें ऐसी ज्ञानमूर्ति जिनराज। रत्नजड़ित सुन्दर दण्डों से शोभित श्वेत छत्रत्रय नाथ ।। जैसे गर्वित सिंह-गर्जना से जंगली हाथी भागें। तव चरणों की पावन-स्तुति के गीतों से रोग नशें ।।। ।। सुर-वनिता के लोचन-वल्लभ श्रीवर चूडामणि जिनराज। बाल-दिवाकर शोभाहारी जन-प्रिय भामण्डल युत आप।। प्रभो! आपके चरण-कमल की स्तुति करती सहज प्रदान। अव्याबाध अचिन्त्य अतुल अनुपम शाश्वत आनन्द प्रदान।।6।। जबतक प्रभासमूहयुक्त जगभासक रवि का उदय न हो। तबतक पङ्कज वन धारण करते हैं सुप्त अवस्था को।। हे प्रभु! जबतक उदित न होता तव चरणों का मधुर प्रसाद। तबतक जग के जीव वहन करते रहते पापों का भार ।।7।।

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