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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
ज्ञानाष्टक निरपेक्ष हूँ कृतकृत्य मैं, बहु शक्तियों से पूर्ण हूँ। मैं निरालम्बी मात्र ज्ञायक, स्वयं में परिपूर्ण हूँ। पर से नहीं संबंध कुछ भी, स्वयं सिद्ध प्रभु सदा। निर्बाध अरु निःशंक निर्भय, परम आनन्दमय सदा ।।१।। निज लक्ष से होऊँ सुखी, नहिं शेष कुछ अभिलाष है। निज में ही होवे लीनता, निज का हुआ विश्वास है ।। अमूर्तिक चिन्मूर्ति मैं, मंगलमयी गुणधाम हूँ। मेरे लिए मुझसा नहीं, सच्चिदानन्द अभिराम हूँ।।२।। स्वाधीन शाश्वत मुक्त अक्रिय अनन्त वैभववान हैं। प्रत्यक्ष अन्तर में दिखे, मैं ही स्वयं भगवान हूँ। अव्यक्त वाणी से अहो, चिन्तन न पावे पार है। स्वानुभव में सहज भासे, भाव अपरम्पार है।।३।। श्रद्धा स्वयं सम्यक् हुई, श्रद्धान ज्ञायक हूँ हुआ। ज्ञान में बस ज्ञान भासे, ज्ञान भी सम्यक् हुआ। भग रहे दुर्भाव सम्यक्, आचरण सुखकार है। ज्ञानमय जीवन हुआ, अब खुला मुक्ति द्वार है।।४।। जो कुछ झलकता ज्ञान में, वह ज्ञेय नहिं बस ज्ञान है। नहिं ज्ञेयकृत किंचित् अशुद्धि, सहज स्वच्छ सुज्ञान है ।। परभाव शून्य स्वभाव मेरा, ज्ञानमय ही ध्येय है। ज्ञान में ज्ञायक अहो, मम ज्ञानमय ही ज्ञेय है।।५।। ज्ञान ही साधन, सहज अरु ज्ञान ही मम साध्य है। ज्ञानमय आराधना, शुद्ध ज्ञान ही आराध्य है।।
ज्ञानमय ध्रुव रूप मेरा, ज्ञानमय सब परिणमन । । ज्ञानमय ही मुक्ति मम, मैं ज्ञानमय अनादिनिधन ।।६।।