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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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वेदन जिन्हें असंग ज्ञान का, नहीं संग में अटकें । कोलाहल से दूर स्वानुभव, परम सुधारस गटकें ।। भवि दर्शन उपदेश श्रवण कर, जिनसे शिव पद पावें । बैठ समीप संत चरणों में, पशु भी बैर भुलावें ||३|| ज्ञेयें से निरपेक्ष ज्ञानमय, अनुभव जिनका पावन । शुद्धातम दर्शाती वाणी, प्रशममूर्ति मन भावन ।। अहो जितेन्द्रिय गुरु अतीन्द्रिय, ज्ञायक गुरु दरशावें । बैठ समीप संत चरणों में, पशु भी बैर भुलावें । । ४ । ।
निज ज्ञायक ही निश्चय गुरुवर, अहो दृष्टि में आया । स्वयं सिद्ध ज्ञानानन्द सागर, अन्तर में लहराया ।। नित्य निरंजन रूप सुहाया, जाननहार जनावें । बैठ समीप संत चरणों में, पशु भी बैर भुलावें । । ५ । ।
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रोम-रोम से निकले प्रभुवर...
रोम-रोम से निकले प्रभुवर नाम तुम्हारा, , हाँ ! नाम तुम्हारा । ऐसी भक्ति करूँ प्रभुजी पाऊँ न जन्म दुबारा ॥ टेक ॥। जिनमंदिर में आया, जिनवर दर्शन पाया ।
अन्तर्मुख मुद्रा को देखा, आतम दर्शन पाया ।।
जनम-जनम तक न भूलूंगा, यह उपकार तुम्हारा । । १ । ।
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अरहंतों को जाना, आतम को पहिचाना । द्रव्य और गुण - पर्यायों से, जिन सम निज को माना ।। भेदज्ञान ही महामंत्र है, मोह तिमिर क्षयकारा || २ ||
पंच महाव्रत धारूँ, समिति गुप्ति अपनाऊँ । निर्ग्रन्थों के पथ पर चलकर, मोक्ष महल में आऊँ ।। पुण्य-पाप की बन्ध शृंखला नष्ट करूँ दुखकारा || ३ ||
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