Book Title: Pratishtha Pujanjali
Author(s): Abhaykumar Shastri
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 191
________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि 191 शुद्ध चिद्रूप अशरीरी लखें, निज को सदा निज में। ]] सहज समभाव की धारा, बहे मुनिवर के अंतर में ।। है पावन अंतरंग जिनका, है बहिरंग भी सहज पावन । धन्य मुनिराज की समता, धन्य मुनिराज का जीवन ।।१।। कर्मफल के अवेदक वे, परम आनंद रस वेदे। कर्म की निर्जरा करते, बढ़े जायें सु शिवमग में ।। मुक्तिपथ भव्य प्रकटावें, अहो करके सहज दर्शन । धन्य मुनिराज की समता, धन्य मुनिराज का जीवन ।।२।। परम ज्ञायक के आश्रय से, तृप्त निर्भय सहज वर्ते । अवांछक निस्पृही गुरुवर, नवाऊँ शीश चरणन में ।। अन्तरंग हो सहज निर्मल, गुणों का होय जब चिन्तन । धन्य मुनिराज की समता, धन्य मुनिराज का जीवन ।।३।। जगत के स्वांग सब देखे, नहीं कुछ चाह है मन में। सुहावे एक शुद्धातम, आराधू होंस है मन में ।। होय निर्ग्रन्थ आनन्दमय, आपसा मुक्तिमय जीवन । धन्य मुनिराज की समता, धन्य मुनिराज का जीवन ।।४।। भावना सहज ही होवे, दर्श प्रत्यक्ष कब पाऊँ । नशे रागादि की वृत्ति, अहो निज में ही रम जाऊँ।। मिटे आवागमन होवे, अचल ध्रुव सिद्धगति पावन । धन्य मुनिराज की समता, धन्य मुनिराज का जीवन ।।५।। धनि मुनिराज हमारे हैं... धनि मुनिराज हमारे हैं।।टेक।। सकल प्रपंच रहित निज में रत, परमानन्द विस्तारे हैं। । निर्मोही रागादि रहित हैं, केवल जाननहारे हैं।

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