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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
(वीरछन्द) जो भव दुःख से डरते हैं अरु अविनाशी सुख को चाहें। पाप शान्त हैं निर्मल मति हैं शीघ्र मुक्ति सुख को पावें।। वे तेजस्वी प्राणी धारें जिन भाषित चारित्र महान। मोक्ष-महल में जाने हेतु जो विशाल अनुपम सोपान ।1।।
(हरिगीतिका) सर्ववेदी वीर जिन द्वारा कहा यह धर्म है। लोकत्रय के सर्व जीवों को सुहित का मर्म है।।2।। घातिकर्म विनाशकर्ता, घातिकर्म विनाश को। चारित्र पाँच प्रकार कहते भव्य जीवों को अहो।।3।। चारित्र सामायिक कहा अरु छेद-पद-स्थापना। परिहार-शुद्धि और सूक्षम साम्पराय सुबुध कहा।।4।। चारित्र पञ्चम यथाख्यात तथाख्यात कहें इसे। यह पाँच विध चारित्र मंगल पाप शोधक भी कहें।।5।। अहिंसादिक पाँच भेद कहें जिनेश्वर व्रत-महा। पाँच समिति पाँच इन्द्रिय का सुनिग्रह भी कहा।।6।। षडावश्यक भूशयन अस्नान एवं नग्नता। खड़े हो इक बार लें आहार, दन्त न धोवना।।7।। केशलोंच करें कहे ये मूलगुण अठबीस हैं। धर्म दश त्रय गुप्ति एवं शील उत्तर गुण कहे ।।8।। बाईस परीषह जयादिक उत्तर कहे गुण साधु के। अन्य विविध प्रकार सहकारी कहे गुण-मूल के।।9।। यदि राग द्वेष विमोह से हो हानि-गुण समुदाय में। वन्दना कर सिद्ध की परिहार हो उस दोष का।10।।