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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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अशरीरी चैतन्य स्वरूपी दर्शन - ज्ञान सुशोभित हैं । निराकार साकार सिद्ध प्रभु के प्रसिद्ध ये लक्षण हैं । 11 ।।
मूल और उत्तर प्रकृति के बंध - उदय-सत्ता विरहित । मङ्गलमय गुण अष्ट अलंकृत सिद्ध प्रभु संसार रहित । 12 ।।
नष्ट हुए हैं अष्टकर्म अरु नित्य निरंजन आनंदकंद । अष्ट गुणान्वित परम तृप्त लोकाग्र विराजें सिद्ध महन्त । 13 ।। कर्मजन्य मल नष्ट हुए प्रविशुद्ध ज्ञानमय सत्तारूप। मुझ पर हों प्रसन्न त्रिभुवन के मुकुटमणि हे सिद्ध प्रभु ।।4।।
गमनागमन विमुक्त हुए जो किया कर्मरज का संहार । शाश्वत सुख को प्राप्त सिद्ध प्रभु वन्दनीय हैं बारंबार । 15 ।।
मङ्गलमय अरु जयस्वरूप जो निर्मल दर्शनज्ञान स्वरूप । तीन लोक के मुकुट सिद्ध भगवन्तों को मैं सदा नमूँ ।। 6 ।।
समकित दर्शन ज्ञानवीर्य सूक्ष्मत्व और अवगाहस्वरूप । अगुरुलघु अरु अव्याबाधी अष्ट गुणान्वित सिद्ध प्रभु । 7 ।।
तप से सिद्ध तथा नय- संयम - चारित से जो सिद्ध हुए । ज्ञान और दर्शन से सिद्ध हुए उनको मैं नमन करूँ ।।8।।
अंचलिका
हे प्रभु सिद्ध भक्ति करके अब मैंने कायोत्सर्ग किया। इसमें लगे हुए दोषों का अब मैं आलोचन करता ।। समकित दर्शन ज्ञान चरितयुत अष्टकर्म बिन गुण संयुक्त । तप-नय रत्नत्रय से सिद्ध हुए लोकाग्र विराजे सिद्ध ।। उन त्रिकालवर्ती सिद्धों को वन्दन कर हम धन्य हुए। दुःख विनष्ट हों कर्म नष्ट हों बोधिलाभ हो सुगति मिले।। जिनगुण संपत्ति मुझे प्राप्त हो मरणसमाधि से भव अंत । पूजा स्तुति कायोत्सर्ग करूँ आचार्यों के अनुसार ।।
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