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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
nपापोदय में चाह व्यर्थ है, नहीं चाहने पर भी हो।
पुण्योदय में चाह व्यर्थ है, सहजपने मन वांछित हो ।। १२ ।। आर्तध्यान कर बीज दुख के, बोना तो अविवेक अहो । धर्म ध्यान में चित्त लगाओ, होय निर्जरा बंध न हो ।। १३ ।। करो नहीं कल्पना असम्भव, अब यथार्थ स्वीकार करो। उदासीन हो पर भावों से सम्यक् तत्त्व विचार करो ।। १४ । । तजा संग लौकिक जीवों का, भोगों के आधीन न हो । सुविधाओं की दुविधा त्यागो, एकाकी शिवपंथ चलो ।। १५ ।। अति दुर्लभ अवसर पाया है, जग प्रपंच में नहीं पड़ो । करो साधना जैसे भी हो, यह नर भव अब सफल करो ।। १६ ।।
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वीतरागी देव तुम्हारे....
वीतरागी देव तुम्हारे जैसा जग में देव कहाँ । मार्ग बताया है जो जग को कह न सके कोई और यहाँ ।। वीतरागी देव तुम्हारे जैसा जग में देव कहाँ । । टेक ।।
है सब द्रव्य स्वतंत्र जगत में कोई न किसी का काम करे। अपने-अपने स्वचतुष्टय में सभी द्रव्य विश्राम करें ।। अपनी-अपनी सहज गुफा में रहते पर से मौन यहाँ । वीतरागी देव तुम्हारे जैसा जग में देव कहाँ । । १ । । भाव शुभाशुभ का भी कर्ता, बनता जो दीवाना है। ज्ञायक भाव शुभाशुभ से भी भिन्न न उसने जाना है ।। अपने से अनजान तुझे भगवान बताते देव यहाँ । वीतरागी देव तुम्हारे जैसा जग में देव कहाँ ।। २ ।। पुण्य-पाप भी पर आश्रित है, उसमें धर्म नहीं होता । ज्ञान भावमय निज परिणति से बन्धन कर्म नहीं होता ।। निज आश्रय से ही मुक्ति है कहते श्री जिनदेव यहाँ ।
वीतरागी देव तुम्हारे जैसा जग में देव कहाँ | |३||
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