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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
रत्नत्रय मुक्ति का मार्ग है अद्भुत, चैतन्य रत्नाकर अद्भुत से अद्भुत। होवें निमग्न अहो सर्व प्राणी, वीतरागी शासन जयवन्त वर्ते ।। जयवन्त वर्ते सर्वज्ञ देव, जयवंत वर्ते निर्ग्रन्थ गुरुवर । जयवन्त वर्ते श्री जिनवाणी, जिनधर्म, जिनतीर्थ जयवंत वर्ते ।। शुद्धात्मा का श्रद्धान वर्ते, अनुभूति निर्मल अविच्छिन्न वर्ते। आवागमन से निर्मुक्ति होवे, मुक्ति का साम्राज्य जयवंत वर्ते ।।
सर्वज्ञ शासन जयवंत वर्ते...
ये महा-महोत्सव... ये महामहोत्सव पञ्चकल्याणक आया मङ्गलकारी..
ये महा-महोत्सव ।।टेक ।। जब काललब्धिवश कोइ जीव निज दर्शन शुद्धि रचाते है। उसके संग में शुभभावों की धारा उत्कृष्ट बहाते हैं। उन भावों के द्वारा तीर्थंकर कर्म प्रकृति रज आते हैं। उनके पकने पर भव्य जीव वे तीर्थंकर बन जाते हैं।।१।। इस भूतल पर पन्द्रह महीने धनराज रतन बरसाते हैं। सुरपति की आज्ञा से नगरी दुलहन की तरह सजाते हैं। खुशियाँ छाई हैं दश दिश में यूँ लगे कहीं शहनाई बजे। हर आतम में परमातम की भक्ति के स्वर हैं आज सजे ।।२।। माता ने अजब निराले अद्भुत देखे हैं सोलह सपने। यह सुना तभी रोमांच हुआ तीर्थंकर होंगे सुत अपने ।। अवतार हुआ तीर्थंकर का क्या मुक्ति गर्भ में आई है। क्षय होगा भ्रमण चतुर्गति का मंगल संदेशा लाई है।।३।। जब जन्म हुआ तीर्थंकर का सरपति ऐरावत लाते हैं। दर्शन से तृप्त नहीं होते, तब नेत्र हजार बनाते हैं।।1