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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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आपी से आपी अरहन्ता, पूज्य भए त्रैलोक महन्ता । - स्व-पर भेदविज्ञान बताया, आतमतत्त्व पृथक् दरशाया ।। २ ।। स्वानुभूतिमय ध्यान जताया, कर्मकाण्ड पालन समझाया । धर्म अहिंसामय दिखलाया, प्रेमकरन हितकरन बताया ।। ३ ।। वस्तु अनेक धर्म धरतारा, स्याद्वाद परकाशन हारा । मत विवाद को मेटनहारा, सत्य वस्तु झलकावनहारा ।।४।। धन तीर्थंकर तेरी वाणी, तीर्थ धर्म सुखकारण मानी । करहु विहार नाथ बहु देशा, करहु प्रचार तत्त्व उपदेशा । । ५ । ।
कर्त्तव्याष्टक
आतम हित ही करने योग्य, वीतराग प्रभु भजने योग्य । सिद्ध स्वरूप ही ध्याने योग्य, गुरु निर्ग्रन्थ ही वंदन योग्य ।। १ ।। साधर्मी ही संगति योग्य, ज्ञानी साधक सेवा योग्य । जिनवाणी ही पढ़ने योग्य, सुनने योग्य समझने योग्य || २ || तत्त्व प्रयोजन निर्णय योग्य, भेद-ज्ञान ही चिन्तन योग्य । सब व्यवहार हैं जानन योग्य, परमारथ प्रगटावन योग्य || ३ || वस्तुस्वरूप विचारन योग्य, निज वैभव अवलोकन योग्य । चित्स्वरूप ही अनुभव योग्य, निजानंद ही वेदन योग्य ||४ || अध्यातम ही समझने योग्य, शुद्धातम ही रमने योग्य । धर्म अहिंसा धारण योग्य, दुर्विकल्प सब तजने योग्य ।। ५ ।। श्री जिनधर्म प्रभावन योग्य, ध्रुव आतम ही भावन योग्य । सकल परीषह सहने योग्य, सर्व कर्म मल दहने योग्य || ६ || भव का भ्रमण मिटाने योग्य, क्षपक श्रेणी चढ़ जाने योग्य । तजो अयोग्य करो अब योग्य, मुक्तिदशा प्रगटाने योग्य ।। ७ ।। आया अवसर सबविधि योग्य, निमित्त अनेक मिले हैं योग्य ।
. हो पुरुषार्थ तुम्हारा योग्य, सिद्धि सहज ही होवे योग्य ॥८ ॥
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