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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
दया धार भू को निरखकर चलत हैं,
सुभाषा महाशुद्ध मीठी वदत हैं । करें शुद्ध भोजन सभी दोष टालें,
दया को धरे वस्तु लें मल निकालें ।।३।। वचन काय मन गुप्ति को नित्य धारें,
धरमध्यान से आत्म अपना विचारें 1
धरें साम्य भावं रहें लीन निज में,
सुचारित्र निश्चय धरें शुद्ध मन में ।।४।। ऋषभ आदि श्री वीर चौबीस जिनेशा.
बड़े वीर क्षत्री गुणी ज्ञान ईशा । खडग ध्यान आतम कुबल मोह नाशा,
जजें हम यतन से स्व आतम प्रकाशा ।।५। (दोहा)
धन्य साधु सम गुण धरें, सहें परीषह धीर। पूजत मंगल हों महा, टलें जगतजन पीर ।। ॐ ह्रीं श्री ऋषभादिवीरांतचतुर्विंशतिजिनेन्द्रेभ्यः तपकल्याणकप्राप्तेभ्यः महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
धन-धन जैनी साधु जगत के तत्त्वज्ञान विलासी हो । । टेक ॥। दर्शन बोधमई निज मूरति जिनको अपनी भासी हो। त्यागी अन्य समस्त वस्तु में अहंबुद्धि दुःखदासी हो ।। १ ।। जिन अशुभोपयोग की परिणति सत्तासहित विनाशी हो। होय कदाच शुभोपयोग तो तहँ भी रहत उदासी हो ॥ २ ॥ छेदत जे अनादि दुःखदायक दुविधि बंध की फाँसी हो । मोह क्षोभ रहित जिन परिणति विमल मयंक विलासी हो ।। ३ ।। विषय चाह दव दाह बुझावन साम्य सुधारस रासी हो । 'भागचन्द' पद ज्ञानानन्दी साधक सदा हुलासी हो ॥ ४ ॥