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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
२४. श्री महावीर भगवान का अर्घ्य
(अवतार)
जल-फल वसु सजि हिमधार, तन-मन मोद धरों । गुण गाऊँ भवदधि तार, पूजत पाप हरों ।। श्री वीर महा अतिवीर, सन्मतिनायक हो । जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो । ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। ( हरिगीत )
इस अर्घ्य का क्या मूल्य है अन्-अर्घ्य पद के सामने । उस परम पद को पा लिया, हे पतित-पावन! आपने ।। सन्तप्त मानस शान्त हों, जिनके गुणों के गान में । वे वर्धमान महान जिन, विचरें हमारे ध्यान में ।। ॐ ह्रीं श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। २५. चौबीस तीर्थकर का अर्घ्य ( अवतार )
जल फल आठों शुचिसार, ताको अर्घ्य करों। तुमको अरपों भवतार, भव तरि मोक्ष वरों ।। चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द कन्द सही । पद जजत हरत भव-फन्द, पावत मोक्ष मही ।। ॐ ह्रीं श्री वृषभादिवीरांतेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तवे अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
२६. मुनिराज पूजन का अर्घ्य
( अवतार ) चक्री चरणन शिर नाय, महिमा प्रगट करें। लेकर बहुमूल्य सु अर्घ्य, हम भी भक्ति करें ।। गुण मूल अठाइस युक्त, मुनिवर को ध्यावें । अपना निग्रंथ स्वरूप, हम भी प्रगटावें ॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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