________________
110
n
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
करे थुती बनाय एक गद्य-पद्य सारते,
कहे असभ्य बात एक क्रूरता प्रसारते । न रोष-तोष धारते पदार्थ को विचारते,
जजूँ यती महान कर्ण राग-द्वेष टारते ।। १५ ।।
ॐ ह्रीं श्री श्रोत्रेन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १८५ ।।
धरें महान शांतता न राग-द्वेष भावते, चलें नहीं सुयोग से विराट कष्ट आवते ।
तरें समुद्र कर्म को जहाज ध्यान खेवते,
यजूँ यती स्वरूप मांहि बैठ तत्त्व बेवते । । १६ ।।
ॐ ह्रीं श्री सामायिकावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं नि. स्वाहा ।। १८६ ।। करें त्रिकाल वन्दना सु पूज्य सिद्ध साधु को,
विचार बार - बार आत्म शुद्ध गुण स्वभाव को । करें जुनाश कर्म जो कि मोक्षमार्ग रोकते, यजूँ यती महान माथ नाय - नाय ढोकतें ।। १७ ।।
ॐ ह्रीं श्री वन्दनावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।१८७।।
करें सुगान गुण अपार तीर्थनाथ देवके, मनपिशाच को विडार स्वात्मसार सेवके । बनाय शुद्ध भावमाल आत्मकण्ठ डारते, जजूँ यती महान कर्म आठ चूर डारते । । १८ ।।
ॐ ह्रीं श्री स्तवनावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १८८ ।।
करें विचार दोष होय नित्य कार्य साधते, क्षमा कराय सर्व जन्तु जाति कष्ट पावते । आलोचना सुकृत्य से स्वदोष को मिटावते, जजूँ यती महान ज्ञान - अम्बु में नहावते ।। १९।।
ह्रीं श्री प्रतिक्रमणावश्यकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १८९/५