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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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न राग द्वेष आदि अंतरंग संग धारते, न क्षेत्र आदि बाह्य संग रंच भी सम्हारते। धरै सु साम्यभाव आप-पर पृथक् विचारते,
जजों यती ममत्व हीन साम्यता प्रचारते ।।५।। ॐ ह्रीं श्री परिग्रहत्यागमहाव्रतधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१७५।।
सु चार हाथ भूमि अग्र देख पाय धारते, न जीवघात होय यत्न सार मन विचारते । सु चारमास वृष्टिकाल एक थल विराजते,
जजू यती सु सन्मती जो ईर्या सम्हारते ।।६।। ॐ ह्रीं श्री ईर्यासमितिधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१७६।।
न क्रोध लोभ हास्य भय कराय साम्य धारते, वचन सुमिष्ट इष्ट मित प्रमाण ही निवारते । यथार्थ शास्त्र ज्ञायका सुधा सु आत्म पीवते,
जजूं यतीश द्रव्य आठ तत्त्व माहिं जीवते ।।७।। ॐ ह्रीं श्री भाषासमितिधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१७७।।
महान दोष छ्यालिसों सुटार ग्रास लेत हैं, पड़े जु अन्तराय तुर्त ग्रास त्याग देत है। मिले जु भोग पुण्य से उसी में सब्र धारते,
जनँ यतीश काम जीत राग-द्वेष टारते ।।८।। ॐ ह्रीं श्री एषणासमितिधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१७८।।
धरें उठाय वस्तु देख शोध खूब लेत हैं, न जन्तु कोय कष्ट पाय, इस विचार लेत हैं। अतः सु मोर पिच्छिका सुमार्जिका सुधारते,
जजूं यती दयानिधान, जीव दु:ख टारते ।।९।। 'ॐ ह्रीं श्री आदाननिक्षेपणसमितिधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयं नि. स्वाहा ।।१७९।।