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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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धरै जु अङ्ग नेत्र नासिकादि मल सु देख के, । न होय जंतु घात थान शुद्धता सुपेख के। परम दया विचार सार व्युत्सर्ग साधते,
जनूँ यतीश चाह-दाह शांतिपय बुझावते ।।१०।। ॐ ह्रीं श्री व्युत्सर्गसमितिपालकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१८०।।
न उष्ण शीत मृदु कठिन गुरु लघू स्पर्शते, न चीकनेऽरु रूक्ष वस्तु से मिलाप पावते । न रागद्वेष को करें समान भाव धारते,
जनूँ यती दमे सपर्श ज्ञान भाव सारते ।।११।। || ॐ ह्रीं श्री स्पर्शनेन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१८१।।
न मिष्ट तिक्त लौण कटुक, आत्मस्वाद चाहते, करत न रागद्वेष शौच भाव को निवाहते। सु जान के सुभाव पुद्गलादि साम्य धारते,
जजूं यती सदा जु चाह-दाह को निवारते ।।१२।। ॐ ह्रीं श्री रसनेन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१८२।।
जगत पदार्थ पुद्गलादि आत्मगुण न त्यागते, सुगन्ध गन्ध दुःखदाय साधु जहाँ पावते । न राग-द्वेष धार घ्राण का विषय निवारते,
जजूं यतीश एकरूप शांतता प्रचारते ।।१३।। ॐ ह्रीं श्री घ्राणेन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१८३।।
सफेद लाल कृष्ण पीत नील रंग देखते. स्वरूप या कुरूप देख वस्तुरूप पेखते। करें न राग-द्वेष साम्यभाव को सम्हारते,
जनँ यती महान चक्षु राग को निवारते ।।१४।। 'ॐ ह्रीं श्री चक्षुरिन्द्रियविकारविरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१५५||