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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
शान्ति पाठ हँ शान्तिमय ध्रव ज्ञानमय, ऐसी प्रतीति जब जगे। अनुभूति हो आनन्दमय, सारी विकलता तब भगे।।१।। निजभाव ही है एक आश्रय, शान्ति दाता सुखमयी। भूल स्व दर-दर भटकते, शान्ति कब किसने लही ।।२।। निज घर बिना विश्राम नाहीं, आज यह निश्चय हुआ। मोह की चट्टान टूटी, शान्ति निर्झर बह रहा ।।३।। यह शान्तिधारा हो अखण्ड, चिरकाल तक बहती रहे। होवें निमग्न सुभव्यजन, सुखशान्ति सब पाते रहें ।।४।। पूजोपरान्त प्रभो यही, इक भावना है हो रही। लीन निज में ही रहूँ, प्रभु और कुछ वांछा नहीं ।।५।। सहज परम आनन्दमय, निज ज्ञायक अविकार । स्व में लीन परिणति विर्षे, बहती समरस धार ।।
विसर्जन पाठ थी धन्य घड़ी जब निज ज्ञायक की, महिमा मैंने पहिचानी। हे वीतराग सर्वज्ञ महा-उपकारी, तव पूजन ठानी ।।१।। सुख हेतु जगत में भ्रमता था, अन्तर में सुख सागर पाया। प्रभु निजानन्द में लीन देख, मम यही भाव अब उमगाया ।।२।। पूजा का भाव विसर्जन कर, तुमसम ही निज में थिर होऊँ। उपयोग नहीं बाहर जावे, भव क्लेश बीज अब नहिं बोऊँ।।३।। पूजा का किया विसर्जन प्रभु, और पाप भाव में पहुँच गया। अब तक की मूरखता भारी, तज नीम हलाहल हाय पिया ।।४।। ये तो भारी कमजोरी है, उपयोग नहीं टिक पाता है। तत्त्वादिक चिन्तन भक्ति से भी दूर पाप में जाता है ।।५।। हे बल-अनन्त के धनी विभो, भावों में तबतक बस जाना। निज से बाहर भटकी परिणति, निज ज्ञायक में ही पहुँचाना ।।६।।
पावन पुरुषार्थ प्रकट होवे, बस निजानन्द में मग्न रहँ। । तुम आवागमन विमुक्त हए, मैं पास आपके जा ति