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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
Lऐसे अर्हत् की शरणा आये, रत्नत्रय प्रकटायाजासे ही जन्म मरण भय नाशे नित्यानन्दी पाय ।। ॐ ह्रीं श्री अर्हतूशरणेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१४।।
(नाराच) सुखी न जीव हो कभी जहाँ कि देह साथ है। सदा ही कर्म आस्रवै, न शातंता लहात है।। जो सिद्ध को लखाय भक्ति एक मन करात है। वही सुसिद्धि आप ही स्वभाव आत्म पात है।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धशरणेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१५।।
(त्रोटक) नहिं राग न द्वेष न काम धरें, भवदधि नौका भवि पार करें। स्वारथ बिन सब हितकारक हैं, ते साधु जघु सुखकारक हैं ।। ॐ ह्रीं श्री साधुशरणेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१६।।
(चामर) धर्म ही सु मित्रसार साथ नाहिं त्यागता, पापरूप अग्नि को सुमेघ सम बुझावता। धर्म सत्य शर्ण यही जीव को सम्हारता,
भक्ति धर्म जो करें अनन्त ज्ञान पावता ।। ॐ ह्रीं श्री धर्मशरणाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१७।।
(दोहा) पञ्च परमगुरु सार हैं, मङ्गल उत्तम जान ।
शरणा राखन को बली, पूनँ धरि उर ध्यान ।। ॐ ह्रीं श्री अर्हत्परमेष्ठिप्रभृतिधर्मशरणांतप्रथमवलयस्थितसप्तदशजिनाधीशयागदेवताभ्यो पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।