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अपावन विनाशीक निज देह लखके,
करें तप सु व्युत्सर्ग सन्तापहारी,
तजें सब ममत्व सुधा आत्म चखके ।
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जूँ मैं गुरु को परम पद विहारी ।। १६ ।।
ॐ ह्रीं श्री व्युत्सर्गतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।१२५।।
है आर्त- रौद्र कुध्यानं कुज्ञानं,
उन्हें नहिं धरें ध्यान धर्म प्रमाणं ।
करें शुद्ध उपयोग कर्मप्रहारी,
मैं गुरु को स्वानुभव सम्हारी ।। १७ ।। ॐ ह्रीं श्री ध्यानावलम्बननिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२६ ।।
करैं कोय बाधा वचन दुष्ट बोले,
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
क्षमा ढाल से क्रोध मन में न कुछ ले ।
धेरै शक्ति अनुपम तदपि साम्यधारी,
जजूँ मैं गुरु को स्वधर्मप्रचारी ।। १८ ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमापरमधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२७ ।।
धेरै मदन तप ज्ञान आदी स्व मन में,
नरम चित्त से ध्यान धारें सु वन में ।
परम मार्दवं धर्म सम्यक् प्रचारी,
जूँ मैं गुरु को सुधा - ज्ञानधारी ।। १९ । । ॐ ह्रीं श्री उत्तममार्दवधर्मधुरन्धराचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२८ ।।
परम निष्कपट चित्त भूमी सम्हारे,
लता धर्म बंधन करें शान्ति धारें ।
गुरु को श्रुत ज्ञान धारें ।। २० ।। ॐ ह्रीं • ह्रीं श्री उत्तमआर्जवधर्मपरिपुष्टाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२९६ ।।'
करम अष्ट हन मोक्ष फल को विचारें, जूँ मैं