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प्रतिष्ठा पूनाम्नलि
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परम साम्यभावं धरे जो त्रिकालं,
भरम राग-द्वेषं मदं मोह टालं ।
पिवँ ज्ञान रस शांति समता प्रचारी,
जजूँ मैं गुरु को निजानन्द धारी ।। ३१ ।। ॐ ह्रीं श्री सामायिकावश्यककर्मधारि-आचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं नि. स्वाहा । । १४० ।।
करें वन्दना सिद्ध अरहन्त देवा,
मगन तिन गुणों में रहें सार लेवा ।
उन्हीं सा निजात जु अपना विचारें,
जूँ मैं गुरु को धरम ध्यान धारें ।। ३२ ।। ॐ ह्रीं श्री वन्दनावश्यकनिरताचार्य परमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १४१ ।।
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करें संस्तवं सिद्ध अरहंत देवा,
करें गान गुण का लहें ज्ञान मेवा । करें निर्मलं भाव को पाप नाशें,
जजूँ मैं गुरु को सु समता प्रकाशें ।। ३३ ।। ॐ ह्रीं श्री स्तवनावश्यकसंयुक्ताचार्य परमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।। १४२ ।।
लगे दोष तन मन वचन के फिरन से,
कहें गुरु समीपे परम शुद्ध मन से । करें प्रतिक्रमण अर लहें दण्ड सुख से,
मैं गुरु को छु सर्व दुःख से ||३४||
ॐ ह्रीं श्री प्रतिक्रमणावश्यकरिताचार्य परमेतिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १४३ ।।
करें भावना आत्म की ज्ञान ध्यावें,
पढ़े शास्त्र रुचि से सुबोधं बढावें । यही ज्ञान सेवा करम मल छुड़ावे,
जजूँ मैं गुरु को अबोधं हटावे ||३५|| ॐ ह्रीं श्री स्वाध्यायावश्यकनिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।१५।।