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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
कर्मों ने आत्म मलीन किया, तप अग्नि जला निज शुद्ध किया। विमलेश्वर जिन मोविमल करो, मल तापसकल ही शांत करो ॥१८॥
ॐ ह्रीं श्री विमलेश्वरजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।३५।। यश जिनका विश्वप्रकाश किया,शशिकर इव निर्मल व्याप्त किया। भट मोह अरी को शांत किया, यशधारी सार्थक नाम दिया ।।१९।।
ॐ ह्रीं श्री यशोधरजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।३६।। समता भय क्रोध विनाश किया, जग कामरिपूको शान्त किया। शुचिताधर शुचिकर नाथ जगूं, श्री कृष्णमती जिन नित्य भनूँ।।२०।।
ॐ ह्रीं श्री कृष्णमतिजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।३७॥ शुचि ज्ञानमती जिन ज्ञान धरे, अज्ञान तिमिर सब नाश करे। जो पूजें ज्ञान बढावत हैं, आतम अनुभव सुख पावत हैं।।२१।।
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानमतिजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ॥३८॥ शुद्धमती जिनधर्म धुरन्धर, जानत विश्व सकल एकीकर। जो शुद्ध बुद्धि होवे पूजें, भवि ध्यान करे निर्मल हूजे ।।२२।।
ॐ ह्रीं श्री शुद्धमतिजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।३९।। संसार विभूति उदास भये, शिवलक्ष्मी सार सुहात भए। निज योग विशाल प्रकाश किया, श्रीभद्र जिनं शिववास लिया।।२३।।
ॐ ह्रीं श्री श्रीभद्रजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।४०।। सत्वीर्य अनन्त प्रकाश किये, निज आतमतत्त्व विकास किये। जिन वीर्य अनन्त प्रभाव धरें, जो पूजें कर्म-कलङ्क हरें।।२४।। ॐ ह्रीं श्री अनन्तवीर्यजिनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।४१।।
(दोहा) भूत भरत चौबीस जिन, गुण सुमरूँ हर बार।
मङ्गलकारी लोक में, सुख-शांति दातार ।। ॐ ह्रीं श्री अस्मिन् प्रतिष्ठामहोत्सवे यागमण्डलेश्वरद्वितीयवलयोन्मुद्रितनिर्वाणाद्यनन्तवीर्यान्तेभ्यो भूतकालवर्तिचतुर्विंशतिजिनेभ्यो पूर्णायँ निर्वपामीति