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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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(झूलना) चर्ण संस्पर्शते वन गिरि शुद्ध हो, नाम सत्तीर्थ को प्राप्त करते भए। दर्श जिनका करे पूजते दुख हरे, जन्म निज सार्थ भविजीव मानत भए।। देव तुम लेखके देव सब छोड़के, देव तुम उत्तमा सन्त ठानत भए। पूजते आपको टालते ताप को, मोक्षलक्ष्मी निकट आप जानत भए। ॐ ह्रीं श्री अर्हल्लोकोत्तमेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१०।।
(भुजंगप्रयात) दरश ज्ञान वैरी करम तीव्र आए,
नरक पशुगति मांहीं प्राणी पठाए। तिन्हें ज्ञान असितें हनन नाथ कीना,
परम सिद्ध उत्तम भनँ रागहीना।। ॐ ह्रीं श्री सिद्धलोकोत्तमेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।११।।
(चौपेया) सूरज चन्द्र देवपति नरपति पद सरोज नित वंदे। लोट-लोट मस्तक धर पग में पातक सर्व निकंदे ।। लोकमांहि उत्तम यतियन में जैनसाधु सुखकंदे। पूजत सार आत्मगुण पावत होवत आप स्वच्छंदे ।। ॐ ह्रीं श्री साधुलोकोत्तमेभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१२।।
(सृग्विणी) जो दया धर्म विस्तारता विश्व में, नाश मिथ्यात्व अज्ञान कर विश्व में। काम भाव दूर कर, मोक्षकर विश्व में,
सत्य जिनधर्म यह धार ले विश्व में ।। ॐ ह्रीं श्री केवलिप्रज्ञप्तधर्मलोकोत्तमाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।।१३।।
(मरहठा) भव-भ्रमण नशाया शरण कराया जीव-अजीवहिं खोज। । इन्द्रादिक देवा जाको पूजें जग गुण गावें रोज