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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
द्वादश तप दश धर्म सम्हार, निज स्वरूप साधें अविकार नहीं भ्रमावें निज उपयोग, धारें निश्चल आतम योग ।। क्रोध नहीं उपसर्गों माँहिं, मान न चक्री शीश नवाहिं । माया शून्य सरल परिणाम, निर्लोभी वृत्ति निष्काम ।। सबके उपकारी वर वीर, आपद माँहिं बंधावें धीर । आत्मधर्म का दें उपदेश, नाशें सर्व जगत के क्लेश ।। जग की नश्वरता दर्शाय, भेदज्ञान की कला बताय । ज्ञायक की महिमा दिखलाय, भव बन्धन से लेंय छुड़ाय ।। परम जितेन्द्रिय मंगल रूप, लोकोत्तम है साधु स्वरूप । अनन्य शरण भव्यों को आप, मेटें चाह दाह भव ताप ।। धन्य-धन्य वनवासी सन्त, सहज दिखावें भव का अन्त । अनियतवासी सहज विहार,, चन्द्र चाँदनी सम अविकार ।। रखें नहीं जग से सम्बन्ध, करें नहीं कोई अनुबन्ध । आतम रूप लखें निर्बन्ध, नशें सहज कर्मों के बन्ध ।
मुनिवर सम मुनिवर ही जान, वचनातीत स्वरूप महान । ज्ञान माँहिं मुनिरूप निहार, करें वन्दना मंगलकार ।। पाऊँ उनका ही सत्संग, ध्याऊँ अपना रूप असंग । यही भावना उर में धार, निश्चय ही होवें भवपार ।। ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
अहो ! सदा हृदय बसें, परम गुरु निर्ग्रन्थ । जिनके चरण प्रसाद से, भव्य लहें शिवपंथ ।
( इति पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् )
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