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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
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निष्कम्प मेरु सम चित्त, काम विकार न हो। लहुँ परम शील निर्दोष, गुरु आदर्श रहो।। गुण मूल अठाइस युक्त, मुनिवर को ध्यावें।
अपना निर्ग्रन्थ स्वरूप, हम भी प्रगटावें ।। ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वरेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्दोष सरस आहार, माँहिं उदास रहें। हैं निजानन्द में तृप्त, हम यह वृत्ति लहें।। गुण मूल अठाइस युक्त, मुनिवर को ध्यावें।
अपना निर्ग्रन्थ स्वरूप, हम भी प्रगटावें।। ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वरेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निर्मल निज ज्ञायक भाव, दृष्टि माँहिं रहे। कैसे उपजावे मोह, ज्ञान प्रकाश जगे।। गुण मूल अठाइस युक्त, मुनिवर को ध्यावें।
अपना निर्ग्रन्थ स्वरूप, हम भी प्रगटावें ।। ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वरेभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
तज आर्त रौद्र दुर्ध्यान, आतम ध्यान धरें। उनको पूजें हर्षाय, कर्म-कलंक हरें।। गुण मूल अठाइस युक्त, मुनिवर को ध्यावें।
अपना निर्ग्रन्थ स्वरूप, हम भी प्रगटावें ।। ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वरेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
निश्चल निजपद में लीन, मुनि नहिं भरमावें। निस्पृह निर्वांछक होय, मुक्ति फल पावें।।