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गुण मूल अठाइस युक्त, मुनिवर को ध्यावें।
अपना निर्ग्रन्थ स्वरूप, हम भी प्रगटावें ॥
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं
निर्वपामीति स्वाहा।
चक्री चरणन शिर नाय, महिमा प्रगट करें। लेकर बहुमूल्य सु अर्घ्य, हम भी भक्ति करें ।।
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
गुण मूल अठाइस युक्त, मुनिवर को ध्यायें। अपना निर्ग्रन्थ स्वरूप, हम भी प्रगटावें ।।
ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिश्वरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्ये निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा)
कामादिक रिपु जीतकर, रहें सदा निर्द्वन्द्व ।
तिनके गुण चिन्तत करें, सहज कर्म के फन्द ।।
( चौपाई )
मुनिगुण गावत चित हुलसाय, जनम-जनम के क्लेश नशाय । शुद्ध उपयोग धर्म अवधार, होय विरागी परिग्रह डार ।। तीन कषाय चौकड़ी नाश, निर्ग्रथ रूप सु कियो प्रकाश । अन्तर आतम अनुभव लीन, पाप परिणति हुई प्रक्षीण ।। पंच महाव्रत सोहें सार, पंच समिति निज पर हितकार । त्रय गुप्ति हैं मंगलकार, संयम पालें बिन अतिचार ।। पंचेन्द्रिय अरु मन वश करे, षट् आवश्यक पालें खरे । नग्नरूप स्नान सु त्याग, केशलोंच करते तज राग ।। एक बार लें खड़े अहार, तजें दन्त धोवन अघकार । भूमि माँहि कछु शयन सु करें, निद्रा में भी जाग्रत रहें ।।
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भूमि