________________
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
। तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वांछा नहिं लेश रखू।
तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अयूँ ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। जड़ व्यंजन क्षुधा न नाश करें, खाने से बंध अशुभ होता। अरु उदय में होवे भूख अत:, निज ज्ञान अशन अब मैं करता ।। तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वांछा नहिं लेश रखू। तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अयूँ ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। जड़ दीपक से तो दूर रहो, रवि से नहिं आत्म दिखाई दे। निज सम्यक्ज्ञानमयी दीपक ही, मोहतिमिर को दूर करे ।। तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वांछा नहिं लेश रखू। तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अ» ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। जब ध्यान अग्नि प्रज्ज्वलित होय, कर्मों का ईंधन जले सभी। दशधर्ममयी अतिशय सुगंध, त्रिभुवन में फैलेगी तब ही ।। तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वांछा नहिं लेश रखू। तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अचूँ ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। जो जैसी करनी करता है, वह फल भी वैसा पाता है। जो हो कर्तृत्व प्रमाद रहित, वह महा मोक्षफल पाता है ।। तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वांछा नहिं लेश रखू। तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अ» ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। है निज आतमस्वभाव अनुपम, स्वाभाविकसुख भी अनुपम है। अनुपम सुखमय शिवपद पाऊँ, अतएव अर्घ्य यह अर्पित है।।