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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
'अक्षय स्वरूप दातार नाथ, बहुमान आपका आया है। निरपेक्ष भावमय अक्षत ही, पूजन के योग्य सुहाया है।।
ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा । चैतन्य ब्रह्म की अनुभूतिमय, ब्रह्मचर्य रस प्रगटाया। भोगों की अब मिटी वासना, दुर्विकल्प भी नहीं आया।। भोगों के तो नाम मात्र से भी, कम्पित मन हो जाता। मानों आयुध से लगते हैं, तब त्राण स्वयं में ही पाता ।। हे कामजयी निज में रम जाऊँ, यही भावना मन आनी। श्रद्धा सुमन समर्पित जिनवर, कामबुद्धि सब विसरानी ।।
ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। निज आत्म अतीन्द्रिय रस पीकर, तुम तृप्त हुए त्रिभुवनस्वामी। निज में ही सम्यक् तृप्ति की, विधि तुम से सीखी जगनामी।। अब कर्ता भोक्ता बुद्धि छोड़, ज्ञाता रह निज रस पान करूँ। इन्द्रिय विषयों की चाह मिटी, सर्वांग सहज आनन्दित हूँ।। निज में ही ज्ञानानन्द मिला, बहुमान आपका आया है। परम तृप्तिमय अकृतबोध ही, पूजन योग्य सुहाया है ।।
ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। मोहान्धकार में भटका था, सम्यक् प्रकाश निज में पाया। प्रतिभासित होता हुआ स्वज्ञायक, सहज स्वानुभव में आया।। इन्द्रिय बिन सहज निरालम्बी प्रभु, सम्यग्ज्ञान ज्योति प्रगटी। चिरमोह अंधेरी हे जिनवर, अब तम समीप क्षण में विघटी।। अस्थिर परिणति में हे भगवन्! बहुमान आपका आया है। अविनाशी केवलज्ञान जगे, प्रभु ज्ञानप्रदीप जलाया है।। ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । निष्क्रिय निष्कर्म परम ज्ञायक, ध्रुव ध्येय स्वरूप अहा पाया। तब ध्यान अग्नि प्रज्वलित हुई, विघटी परपरिणति की माया।।।