________________
प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
श्री पार्श्वनाथ जिन पूजन
स्थापना हे पार्श्वनाथ ! हे पार्श्वनाथ, तुमने हमको यह बतलाया। निज पार्श्वनाथ में थिरता से, निश्चयसुख होता सिखलाया। तुमको पाकर मैं तृप्त हुआ, ठुकराऊँ जग की निधि नामी। हे रवि सम स्वपर प्रकाशक प्रभु, मम हृदय विराजो हे स्वामी ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् । जड़ जल से प्यास न शान्त हुई, अतएव इसे मैं यहीं तनँ। निर्मल जल-सा प्रभु निजस्वरूप, पहिचान उसी में लीन रहँ।। तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वांछा नहिं लेश रखू। तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अ» ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चन्दन से शान्ति नहीं होगी, यह अन्तर्दहन जलाता है। निज अमल भावरूपी चन्दन ही, रागाताप मिटाता है।। तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वांछा नहिं लेश रखू। तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अयूँ ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु उज्ज्वल अनुपम निजस्वभाव ही, एकमात्र जग में अक्षत। जितने संयोग वियोग तथा, संयोगी भाव सभी विक्षत ।। तन-मन-धन निज से भिन्न मान, लौकिक वांछा नहिं लेश रखें। तुम जैसा वैभव पाने को, तव निर्मल चरण-कमल अयूँ ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
ये पुष्प काम उत्तेजक है, इनसे तो शान्ति नहीं होती। निज समयसार की सुमन माल ही कामव्यथा सारी खोती।।