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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
पंच-परमेष्ठी पूजन अरहन्त सिद्ध आचार्य नमन, हे उपाध्याय हे साधु नमन । जय पंच परम परमेष्ठी जय, भवसागर तारणहार नमन ।। मन-वच-काया पूर्वक करता हूँ, शुद्ध हृदय से आह्वानन । मम हृदय विराजो तिष्ठ तिष्ठ, सन्निकट होहु मेरे भगवन ।। निज आत्मतत्त्व की प्राप्ति हेतु, ले अष्ट द्रव्य करता पूजन ।
तुम चरणों की पूजन से प्रभु, निज सिद्ध रूप का हो दर्शन ।। ॐ ह्रीं श्री अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुपंचपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर-अवतर संवौषट् । ॐ हीं श्री अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुपंचपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ, तिष्ठ, ठः ठः। ॐ ह्रीं श्री अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुपंचपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट्।
मैं तो अनादि से रोगी हँ, उपचार कराने आया हूँ। तुम सम उज्ज्वलता पाने को, उज्ज्वल जल भरकर लाया हूँ।। मैं जन्म-जरा-मृतु नाश करूँ, ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। संसारताप में जल-जल कर, मैंने अगणित दुःख पाये हैं। निज शान्त स्वभाव नहीं भाया, पर के ही गीत सुहाये हैं।। शीतल चंदन है भेट तुम्हें, संसार-ताप नाशो स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। दुःखमय अथाह भवसागर में, मेरी यह नौका भटक रही। शुभ-अशुभ भाव की भँवरों में चैतन्यशक्ति निज अटकरही।। तन्दुल है धवल तुम्हें अर्पित, अक्षयपद प्राप्त करूँ स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु, भव-दुःख मेटो अन्तर्यामी ।।
ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। मैं काम-व्यथा से घायल हूँ, सुख की न मिली किंचित् छाया। चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ, तुम को पाकर मन हर्षाया ।।