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प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि
।। अन्तर्मख परिणति के द्वारा, प्रभुवर का सम्मान करूँ।। पूजूं जिनवर परमभाव से, निज सुख का आस्वाद करूँ।।
अक्षय सुख का स्वाद लूँ, इन्द्रिय मन के पार ।
सिद्ध प्रभु सुख मगन ज्यों, तिष्ठे मोक्ष मंझार ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। निष्काम अतीन्द्रिय देव अहो ! पूनँ मैं श्रद्धा सुमन चढ़ा। कृतकृत्य हुआ निष्काम हुआ, तब मुक्तिमार्ग में कदम बढ़ा ।। गुण अनंतमय पुष्प सुगंधित, विकसित हैं निज आतम में। कभी नहीं मुरझावें परमानन्द पाया शुद्धातम में ।।
रत्नत्रय के पुष्प शुभ, खिले आत्म उद्यान ।
सहजभाव से पूजते, हर्षित हूँ भगवान ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तृप्त क्षुधा से रहित जिनेश्वर चरु लेकर मैं पूज करूँ। अनुभव रसमय नैवेद्य सम्यक्, तुम चरणों में प्राप्त करूँ।। चाह नहीं किंचित् भी स्वामी, स्वयं स्वयं में तृप्त रहूँ। सादि-अनंत मुक्तिपद जिनवर, आत्मध्यान से प्रकट लहूँ।।
जग का झूठा स्वाद तो, चाख्यो बार अनन्त ।
वीतराग निज स्वाद लूँ, होवे भव का अन्त ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अगणित दीपों का प्रकाश भी, दूर नहीं अज्ञान करे। आत्मज्ञान की एक किरण, ही मोह तिमिर को तुरत हरे ।। अहो ज्ञान की अद्भुत महिमा, मोही नहिं पहिचान सकें। आत्मज्ञान का दीप जलाकर, साधक स्व-पर प्रकाश करें।
स्वानुभूति प्रकाश में, भासे आत्मस्वरूप।
राग पवन लागे नहीं, केवलज्योति अनूप ।। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
द्वेष भाव तो नहीं रहा, रागांश मात्र अवशेष हुआ। ध्यान-अग्नि प्रगटी ऐसी, तहाँ कर्मेन्धन सब भस्म हुआ।।
अहो ! आत्मशुद्धि अद्भुत है, धर्म सुगन्धी फैल रही। [ दशलक्षण की प्राप्ति करने, प्रभु चरणों की शरण गही।।1